जब भी कहीं दंगा होता है, किसी घर में आग लगती है, किसी माँ की गोद उजड़ती है या कोई बच्चा डर के मारे रोता है—तो वह यह नहीं पूछता कि उसे मारने वाला किस धर्म का था। वह सिर्फ इंसान होता है। लेकिन अफ़सोस, भारत और बांग्लादेश जैसे देशों में बार-बार इंसानियत हारती दिख रही है और धर्म जीतता हुआ नज़र आता है।
बांग्लादेश: अल्पसंख्यकों का डर और असुरक्षा
बांग्लादेश में हाल के वर्षों में अल्पसंख्यक समुदायों पर हमले, मंदिरों में तोड़फोड़, घरों और दुकानों को जलाने की घटनाएँ सामने आती रही हैं। चुनाव, अफवाह या सोशल मीडिया पर फैलाई गई नफ़रत—अक्सर एक छोटी सी चिंगारी पूरे इलाके को आग में झोंक देती है। यहाँ सवाल यह नहीं है कि हमला किसने किया, सवाल यह है कि कानून और समाज दोनों मिलकर इसे रोक क्यों नहीं पाए?
जब एक नागरिक सिर्फ अपने धर्म की वजह से डर के साये में जीने को मजबूर हो जाए, तो यह सिर्फ एक समुदाय की नहीं, पूरे देश की हार होती है।

बांग्लादेश: अल्पसंख्यकों पर बढ़ते हमले — डेटा क्या कहता है?
बांग्लादेश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक अधिकार समूह Bangladesh Hindu Buddhist Christian Unity Council के अनुसार,
4 अगस्त 2024 से लगभग 330 दिनों में 2,442 ‘सांप्रदायिक हिंसा’ की घटनाएँ दर्ज की गईं, जिसमें हत्या, यौन हिंसा, पूजा स्थलों पर हमले, घरों और व्यापार पर कब्ज़ा जैसे गंभीर अपराध शामिल थे। सोर्स: The Economic Times
यह संख्या कम नहीं — यह एक संपूर्ण संकट की घंटी है जिसने दशकों पुराने उनके अस्तित्व को चुनौती दी है। यह हिंसा केवल “राजनीतिक अस्थिरता” तक सीमित नहीं है —
हत्या से लेकर घरों को जलाने तक, और परिवारों को विस्थापित करने तक —सब कुछ इसी आंकड़े में दर्ज है। सोर्स: The Economic Times
— वहीं, बांग्लादेश पुलिस और सरकारी रिपोर्ट कहती है कि अधिकांश घटनाएँ वास्तव में “राजनीतिक स्वरूप की थीं” और केवल कुछ ही मामलों को सांप्रदायिक हिंसा माना गया।
यह वही स्थिति है जहाँ आंकड़े और सत्यापन दोनों अलग-अलग चित्र पेश कर रहे हैं — जिससे न केवल पीड़ितों को न्याय की कमी का सामना करना पड़ रहा है, बल्कि समुदाय के भीतर एक भय और अविश्वास का माहौल भी बन गया है। सोर्स: The Times of India
उदाहरण के तौर पर: 26-27 जुलाई 2025 को गंगाचरा इलाके में हिंदू मल्टी-होम हमले में लगभग 15-20 घरों को लूटा और विघटित किया गया — जिसने कई परिवारों को पलायन के लिए मजबूर किया। सोर्स: Wikipedia
भारत: जहाँ विविधता ताक़त थी, वहाँ नफ़रत क्यों?
भारत खुद को “विविधताओं का देश” कहता है। सदियों से यहाँ मंदिर के साथ मस्जिद, गुरुद्वारे के साथ चर्च खड़े रहे। लेकिन आज वही भारत मॉब लिंचिंग, धार्मिक जुलूसों में हिंसा, नफ़रत भरे नारों और सोशल मीडिया ट्रायल का गवाह बन रहा है। कभी गाय के नाम पर, कभी लव जिहाद के नाम पर, तो कभी अफवाहों के सहारे इंसान को इंसान से लड़ाया जा रहा है। सबसे दुखद बात यह है कि राजनीति और सत्ता की चुप्पी कई बार इस नफ़रत को और हवा देती है।
धर्म का असली मतलब क्या था?
हर धर्म ने इंसानियत सिखाई है—
हिन्दू धर्म ने “वसुधैव कुटुम्बकम्” कहा
इस्लाम ने इंसान की जान को सबसे कीमती बताया
ईसाई धर्म ने प्रेम और क्षमा का संदेश दिया
सिख धर्म ने सेवा और बलिदान सिखाया
फिर सवाल उठता है—अगर हर धर्म इंसानियत सिखाता है, तो नफ़रत किस धर्म से पैदा हो रही है?

भारत में सांप्रदायिक तनाव: उभरते आंकड़े और न्यायिक कदम
भारत में भी हाल के वर्षों में सांप्रदायिक तनाव और हिंसा की घटनाएँ बढ़ी हैं। 2024 में भारत में कम से कम 59 सांप्रदायिक दंगों की रिपोर्ट दर्ज की गई, जो कि 2023 (32 दंगों) से लगभग 84% अधिक थी।
इन दंगों में 13 लोग मारे गए, जिनमें से
10 मुसलमान और 3 हिंदू थे। सोर्स: The New Indian Express
सरकार के आंकड़े (NCRB) अब नियमित रूप से उपलब्ध नहीं होते, इसलिए विश्लेषणकारों ने अख़बारों व निगरानी समूहों के डेटा का उपयोग किया। सोर्स : The New Indian Express
मॉब लिंचिंग जैसे मामलों में 2024 में 13 ऐसे कृत्य दर्ज हुए, जिनमें 11 लोगों को मौत का सामना करना पड़ा — जिसमें अधिकांश मुसलमान शामिल थे। सोर्स: CSSS
हाल ही में मुर्शिदाबाद मामले में एक जिला अदालत ने धार्मिक तनाव के दौरान हत्या के लिए 13 लोगों को दोषी ठहराया है — यह न्याए की दिशा में एक सकारात्मक कदम है। सोर्स : The Economic Times
कोर्ट व न्याए की भूमिका: चुनौती और उम्मीद
भारत में अदालतें और न्यायिक प्रणाली अक्सर उन मामलों में जागरूक हुई हैं जहाँ भीड़-निर्णय से हिंसा फैलती है।
उदाहरण के तौर पर, 2015 के सुप्रीम कोर्ट निर्देश के बाद से मॉब लिंचिंग मामलों में सख़्त कार्रवाई के कदम बढ़े हैं। सोर्स:
CSSS
वहीं, मानवाधिकार संगठनों जैसे Human Rights Watch ने भी भारत में धार्मिक-आधारित हिंसा और सिस्टम की प्रतिक्रिया पर चिंता जताई है, विशेषकर मणिपुर जैसी हिंसा प्रभावित जगहों में न्याय सुनिश्चित करने की धीमी प्रक्रिया पर। सोर्स: Human Rights Watch
लेकिन न्याय केवल फैसलों से ही नहीं आता —
जो निर्णय न्यायपालिका दे, वे तभी प्रभावी होंगे जब प्रशासन और समाज दोनों मिलकर काम करें।
मीडिया और सोशल मीडिया की भूमिका
आज अफवाहें व्हाट्सऐप से निकलकर सड़कों तक पहुँच जाती हैं। बिना पुष्टि के वीडियो, आधी-अधूरी ख़बरें और भड़काऊ हेडलाइन समाज को ज़हर घोल रही हैं।
मीडिया का एक हिस्सा TRP की दौड़ में आग में घी डालता दिखता है, जबकि जिम्मेदारी निभाने की ज़रूरत पहले से कहीं ज़्यादा है।
सरकार और सिस्टम से उम्मीद
चाहे भारत हो या बांग्लादेश—सरकारों की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है कि वे धर्म नहीं, नागरिक देखें।
दोषियों पर सख़्त कार्रवाई, पीड़ितों को न्याय और भरोसा—यही नफ़रत को रोकने का रास्ता है। अगर अपराधी को यह यकीन हो जाए कि उसे राजनीतिक या धार्मिक संरक्षण मिलेगा, तो इंसानियत का क़त्ल यूँ ही होता रहेगा।
अब सवाल हमसे है
हर बार उंगली सरकार, सिस्टम या धर्म पर उठाना आसान है। लेकिन समाज के तौर पर हमें भी खुद से पूछना होगा—
क्या हम बिना जाँच के किसी ख़बर पर भरोसा कर लेते हैं?
क्या हम नफ़रत भरे मैसेज आगे बढ़ाते हैं?
क्या हम चुप रहकर ग़लत का साथ दे रहे हैं?
इसका निष्कर्ष: इंसान पहले, धर्म बाद में
भारत और बांग्लादेश की हालिया घटनाएँ एक ही बात चीख-चीख कर कहती हैं—
अगर इंसानियत नहीं बचेगी, तो धर्म भी नहीं बचेगा।
मंदिर, मस्जिद, चर्च और गुरुद्वारे तभी सुरक्षित रहेंगे, जब इंसान सुरक्षित रहेगा।
आज ज़रूरत है नफ़रत के शोर से ऊपर उठकर यह कहने की—
“धर्म से बड़ा इंसान है, और इंसानियत से बड़ा कुछ नहीं।”
