जब 2005 में नीतीश कुमार ने बिहार की सत्ता संभाली थी, तब जनता को उम्मीद जगी थी – “अब शायद डर के साये से आज़ादी मिलेगी“, “अब शायद बहन-बेटियां शाम को सुरक्षित घर लौटेंगी“, “अब शायद नौकरी के लिए दिल्ली-मुंबई का टिकट नहीं लेना पड़ेगा”। कुछ सालों तक हालात सुधरे भी, लेकिन आज 2025 में खड़ा होकर पीछे देखें तो सवाल उठता है – क्या वाकई बिहार बदल पाया?
2005 का बिहार – अंधेरे से रोशनी की तरफ़
2005 से पहले के बिहार को ‘जंगल राज’ कहा जाता था। अपहरण उद्योग, रंगदारी, सड़क पर गोली, और प्रशासनिक पंगुता चरम पर थी।
नीतीश कुमार की सरकार ने आते ही सुधार की कोशिश की – पुलिस भर्ती, तेज़ ट्रायल, पंचायत स्तर पर निगरानी।
2005-2010 के बीच अपहरण के मामलों में 30% गिरावट और सड़क निर्माण में भारी उछाल आया।
2011-2015 – सुधार की रफ्तार धीमी
जैसे-जैसे समय बीता, सरकार की पकड़ कमजोर होने लगी।
अपराधियों का हौसला फिर से बढ़ने लगा।
उदाहरण के लिए, 2012 में वैशाली में एक छात्रा के साथ गैंगरेप और हत्या का मामला प्रदेश को झकझोर गया।
पुलिस पर राजनीतिक दबाव और भ्रष्टाचार की जड़ें फिर से जमने लगीं।
⚠️ 2015 के बाद – गिरती साख और डगमगाता सिस्टम
2015 में महागठबंधन और फिर 2017 में बीजेपी के साथ पलटी मार गठबंधन से राजनीतिक अस्थिरता बढ़ी।
अपराध के आंकड़े बढ़ने लगे:
हत्या: 2010 में जहाँ औसतन 2,700 केस होते थे, 2024 में ये संख्या 4,200 से पार हो चुकी है।
रेप के मामले: NCRB के अनुसार 2015 में जहाँ लगभग 950 मामले थे, 2023 में ये संख्या 1,650 से अधिक हो गई।
गैंगवार और छात्र संगठन हिंसा की घटनाएँ पटना, मुजफ्फरपुर, भागलपुर जैसे शहरों में आम होती चली गईं।
2020 के बाद – कानून की हार, अपराधियों का राज
कोरोना महामारी के बाद से प्रशासनिक ढीलापन और बेरोज़गारी ने स्थिति और भी खराब कर दी।
पलायन करने वाले युवा, खाली जेब और टूटी उम्मीदों के साथ गांव लौटे – लेकिन ना काम मिला, ना इज़्ज़त।
जब सरकार शराबबंदी कानून लाकर महिलाओं को सुरक्षा का भरोसा दे रही थी, तब शराब माफिया रातों-रात करोड़पति बनते गए।
2024 में सारण ज़िले में जहरीली शराब से 50+ मौतें हुईं, लेकिन आज तक दोषी बचे हैं।
ताजा उदाहरण जो रुला देते हैं…
बिहार पुलिस की जांच की रफ्तार और लचरता पर कई सवाल उठे।
गया और सीवान में हाल ही में दिन-दहाड़े हत्या, सीसीटीवी होने के बावजूद पुलिस खाली हाथ।
बेतिया में स्कूल जाती बच्ची से गैंगरेप, FIR लिखवाने में परिवार को एक हफ्ता लग गया।
❓ क्यों बिगड़ती जा रही है व्यवस्था?
राजनीतिक हस्तक्षेप – पुलिस अफसर का ट्रांसफर नेताओं की मर्ज़ी से, अपराधियों को पार्टी की छतरी।
युवा बेरोज़गारी – बेरोज़गार युवा अपराध की तरफ आसानी से फिसल जाते हैं।
पुलिस बल की कमी – आज भी बिहार में प्रति लाख जनसंख्या पर औसतन सिर्फ 75 पुलिसकर्मी, जबकि राष्ट्रीय औसत 156 है।
कमज़ोर न्याय प्रणाली – मुक़दमे सालों तक लटकते हैं, न्याय मिलते-मिलते लोग थक जाते हैं।
शराबबंदी की विफलता – इसका लाभ अपराधी उठा रहे हैं, जबकि आम आदमी को सज़ा मिल रही।
जनता की भावनाएँ – टूटी उम्मीदें और दर्द
“जब बेटी स्कूल जाती है, दिल बैठा रहता है…
जब बेटा शाम को देर से लौटता है, साँस अटक जाती है…
जब कोई गुनहगार VIP बन जाता है, तब लगता है – कानून नहीं, पैसे का राज है बिहार में।“
✅ अब क्या किया जाए?
पुलिस की स्वतंंत्रता और जवाबदेही सुनिश्चित हो।
फास्ट ट्रैक कोर्ट की संख्या बढ़े।
बेरोज़गारी दूर करने के लिए ज़मीनी स्तर पर रोजगार सृजन हो।
शराबबंदी कानून की समीक्षा और सख्त अमल।
सिविल सोसाइटी और मीडिया की सक्रिय भागीदारी।
बिहार में बदलाव ऐसे हो सकते है
2005 से 2025 तक बिहार ने बदलाव देखा, लेकिन वो अधूरा रहा। शुरुआत में सुधार की किरण दिखी, मगर राजनीतिक स्वार्थ, बेरोज़गारी, और कमजोर कानून व्यवस्था ने इस उम्मीद को फिर अंधेरे में ढकेल दिया। अब अगर कुछ नहीं बदला गया, तो आने वाले 10 साल और भी ज़्यादा भयावह हो सकते हैं।
बिहार को सिर्फ नेता नहीं, जिम्मेदार नागरिक भी बचा सकते हैं।