बिहार की मिट्टी हमेशा से राजनीतिक उठापटक की गवाह रही है। यहां की जनता ने कई सरकारें बनाई और गिराई भी। मगर एक बात जो हर बार दिखती है – “नेता तब ही ज़मीन पर उतरते हैं जब चुनाव सिर पर होता है।” और इस बार भी कुछ अलग नहीं है।

2025 के चुनावी साल की आहट मिलते ही, जो नेता अब तक वातानुकूलित कमरों में आराम कर रहे थे, अब वो गांव-गांव, टोला-टोला घूमते नज़र आ रहे हैं। हर जगह शिलान्यास की होड़ मची है। कहीं सड़कों का उद्घाटन, कहीं पुलिया की नींव रखी जा रही है, कहीं पानी की टंकी बनवाने की घोषणा तो कहीं नए अस्पताल की बात।

बिहार की जनता अब समझ चुकी है…

बिहार में लोग अब भोले नहीं हैं। अब जनता को ये अच्छे से समझ में आ गया है कि जैसे ही चुनाव आता है, नेता लोगों की “स्मृति” में लौट आते हैं। वरना 4 साल तो वो सिर्फ “घोषणाओं” और “जुमलों” में ही दिखाई देते हैं।

गांव के रामबाबू यादव कहते हैं, पिछली बार भी वोट लेने आए थे, तब बोले थे कि पक्की सड़क बनवा देंगे, बिजली 24 घंटे देंगे, लेकिन चुनाव जीतते ही मोबाइल भी नहीं उठाया। अब फिर आए हैं हाफपैंट में पसीना बहाने। हमको तो अब सब समझ में आ गया है।

वहीं बेगूसराय की एक महिला शारदा देवी बताती हैं, “बीते साल जब हमारे मोहल्ले में नाली की बदबू से जीना मुश्किल हो गया था, तब कोई नेता देखने नहीं आया। अब हर गली में पोस्टर-बैनर लगा है। बच्चों के नाम पर स्कूल बनवाने का शिलान्यास हो रहा है। लेकिन असलियत में तो अभी भी बच्चे खुले मैदान में पढ़ते हैं।”

बिहार

 

विकास सिर्फ कागज़ पर और शिलान्यास के नाम पर एक छोटी सी दीवार

अगर देखा जाए तो 2020 के बाद से अब तक बिहार में कई ऐसे वादे किए गए, जिनका जमीनी हकीकत से कोई लेना-देना नहीं रहा:

बेरोजगारी की दर लगातार बढ़ी है। लाखों युवा आज भी या तो बाहर पलायन कर रहे हैं या घर बैठे सरकार की किसी योजना का इंतजार कर रहे हैं।

शिक्षा व्यवस्था की हालत बद से बदतर है। स्कूलों में शिक्षक नहीं, कॉलेजों में रिसर्च का माहौल नहीं।

स्वास्थ्य सेवाएं कोरोना के समय की तरह अब भी संसाधन की कमी से जूझ रही हैं।

अब नेता कर रहे जनता को मना लेने की कोशिश

अब नेता जी मंदिरों में माथा टेक रहे हैं, किसान के खेत में हल चलाने की कोशिश कर रहे हैं, मजदूरों के संग चूल्हे पर रोटी सेंक रहे हैं। कैमरे वालों को साथ लेकर चल रहे हैं ताकि हर फोटो, हर वीडियो सोशल मीडिया में वायरल हो सके।

लेकिन जनता अब भावनाओं से ज्यादा सच देखना चाहती है।

भावनात्मक मोड़: जनता का दर्द
बिहार का युवा आज भी यही सोचकर रोता है कि “हमारे पास भी टैलेंट है, लेकिन हमारे नेताओं को सिर्फ कुर्सी से मतलब है।”
माएं आज भी आंगन में अपने बेटे के बाहर जाने पर यही कहती हैं – “पता नहीं कब तक ऐसे ही रोजी-रोटी के लिए परदेश जाना पड़ेगा?” गांव के बुजुर्ग कहते हैं – “नेता बदलते हैं, पर हालात नहीं बदलते।”

आखिरी बात – अब जनता को ही तय करना है

इस बार जनता को तय करना है कि वो सिर्फ शिलान्यास और भाषणों से बहल जाएगी या पिछले 5 साल की हकीकत को देखकर फैसला करेगी।
क्योंकि बिहार को सिर्फ वादा नहीं, परिवर्तन चाहिए।

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