भारत में लोकतंत्र की ताकत जनता होती है। यह वही जनता है जिसके दम पर सरकारें बनती हैं, नीतियाँ तय होती हैं और देश आगे बढ़ता है। लेकिन आज तस्वीर उलटी है—जनता की समस्याएँ दिन-ब-दिन बढ़ रही हैं, और मीडिया का कैमरा उन समस्याओं से दूर जाकर कहीं और फोकस कर रहा है। अब सवाल उठना लाज़मी है: क्या मीडिया जनता का पहरेदार है या फिर सत्ता का गुणगान करने वाली मशीन बन चुका है?
1. असल मुद्दे: जनता जल रही, मीडिया दिखा क्या रही है?
देश के भीतर बेरोज़गारी की स्थिति चिंता से कहीं आगे बढ़कर गंभीर संकट बन चुकी है।
CMIE के ताज़ा डेटा के अनुसार नवंबर 2025 में देश की बेरोज़गारी दर 8.3% रही। कई राज्यों में यह 10–12% तक पहुंच चुकी है। करोड़ों युवा आज भी रोजगार के नाम पर बस आश्वासन लेकर घूम रहे हैं।
दूसरी तरफ महंगाई की मार भी कम नहीं है—
दालों की कीमतें एक साल में 18–20% बढ़ीं
सब्जियों का औसत दाम 30% ऊपर गया
घरेलू सिलेंडर अभी भी 900 रुपये के पार जा चुकी है
पर प्राइम टाइम टीवी पर देखिए—
कहीं “देश ने रॉकेट भेज दिया”,
कहीं “सरकार ने ऐतिहासिक निर्णय लिया”,
और कहीं “देश की छवि विश्व में चमक रही है”।
पूछने का मन करता है—अच्छा, गरीब का चूल्हा कब जलेगा? युवा को नौकरी कब मिलेगी? किसान का फसल लागत कैसे पूरी होगी?
पर इन सवालों का जवाब खोजने वाला मीडिया आज नज़र ही नहीं आता।
2. मीडिया की प्राथमिकताएँ कौन तय कर रहा है?
पहले पत्रकार जमीनी मुद्दों पर आग लगाकर रिपोर्टिंग करते थे।
सरकारें उनसे डरती थीं, क्योंकि सवालों से बचना मुश्किल होता था।
अब परिदृश्य बदल चुका है—
कॉरपोरेट मालिक + राजनीतिक दबाव + टीआरपी = पत्रकारिता की हत्या
प्रेस फ्रीडम इंडेक्स 2024 में भारत का स्थान 159वां था।
2025 की स्थितियों में भी रैंकिंग में सुधार की कोई भी बड़ी उम्मीद नहीं दिखती।
सोशल मीडिया पर आलोचना करने वाले पत्रकारों पर केस,FIR,ED,CBI के रेड और
चैनलों पर आर्थिक दबाव,
न्यूज़ रूम में एडिटोरियल कंट्रोल पर बाहरी हस्तक्षेप—
मिलकर पत्रकारिता का दम घोंट रहे हैं।
अब “विरोध” नहीं होता, “विज्ञापन” होता है।
अब “सवाल” नहीं पूछे जाते, “प्रचार” किया जाता है।
3. टीआरपी का खेल: मसाला चाहिए, मुद्दा नहीं
टीआरपी की राजनीति ने पत्रकारिता को एक तमाशा बना दिया है।
मीडिया यह मान बैठा है कि जनता सच नहीं चाहती, मनोरंजन चाहती है।
इस वजह से—मुद्दे गायब
चीख-चिल्लाहट वाली बहसें चालू
एंकर जज की तरह फैसला सुनाते
विपक्ष पर उँगलियाँ उठतीं

सरकार के बचाव में स्क्रिप्टेड तर्क
जबकि हकीकत यह है कि 2025 के एक विश्लेषण में पता चला कि टीवी चैनलों के प्राइम टाइम शो में सिर्फ 5–7% कंटेंट ही जनता के असली संकटों पर आधारित होता है।
बाकी समय “कौन किससे लड़ गया”, “कौन किससे नाराज”, “किसने क्या कहा”—इसी में बर्बाद होता है।
4. जनता की समस्याएँ गहरी हो रही हैं, पर उन पर खामोशी क्यों?
जब जनता की आवाज़ को ही मीडिया दबाने लगे, तो उसकी समस्याएँ हल नहीं होतीं—बल्कि और गहरी होती जाती हैं।
किसान
एमएसपी पर असमंजस, लागत बढ़ती जा रही, आय वही।
कई राज्यों में किसान औसतन 1,200–1,800 रुपये/माह की शुद्ध आय में गुज़ारा कर रहा है।
पर मीडिया में उनकी कोई जगह नहीं।
युवा
कोचिंग सेंटरों में लाखों खर्च, सालों की तैयारी, और नौकरी सिर्फ वादा।
हर साल 1 करोड़ से ज्यादा नए युवा रोजगार बाजार में आते हैं, लेकिन रोजगार आधे भी नहीं बनते।
महंगाई
राशन, दाल, सब्जी, सिलेंडर—सबकी कीमतें आग उगल रही है।
पर चैनल पर मुद्दा—“देश ने विश्व रिकॉर्ड बना दिया…” देश तेजी से बढ़ती इकॉनमी है। यह विडंबना नहीं, विफलता है।
5. क्या पत्रकारों की अंतरात्मा मर चुकी है?
यह सवाल दर्द देता है।
क्योंकि सच यह है कि सभी पत्रकार नहीं बिके हैं।
कई अभी भी मैदान में हैं—गाँवों में, बाढ़ में, आंदोलनों में, अस्पतालों में—सच दिखा रहे हैं।
पर उनकी आवाज़ बड़े चैनलों की “शोर मशीन” में दब जाती है।
समस्या यह नहीं कि पत्रकारों की आत्मा मर गई।
समस्या यह है कि सत्ता और कॉरपोरेट गठजोड़ ने उसे दबा दिया है।
6. क्या समाधान है?
1. जनता को अपनी मीडिया पसंद बदलनी होगी
टीआरपी चलाने वाले चैनलों को देखना बंद करें,
जमीनी पत्रकारिता को समर्थन दें।
2. डिजिटल स्वतंत्र पत्रकारों की भूमिका बढ़ानी होगी
यही लोग सच्चे मुद्दे दिखा रहे हैं।
3. मीडिया पर जनता का दबाव बनाना होगा
चैनलों को समझाना होगा कि लोग “ सरकार की महिमामंडन” नहीं, “मुद्दे” चाहते हैं।
4. पत्रकारों को सुरक्षा और अभिव्यक्ति की आज़ादी
बिना इसके मीडिया का पुनर्जन्म असंभव है।
अंत में…
भारत का लोकतंत्र तभी मजबूत होगा
जब मीडिया ताकतवरों की नहीं, कमजोरों की आवाज़ उठाएगा।
जब कैमरा सत्ता के मंच से हटकर भूखे के घर पर फोकस करेगा।
जब अखबारों की सुर्खियों में महिमामंडन नहीं, जनता के दर्द की तस्वीर होगी।
अगर मीडिया असल मुद्दों को यूँ ही अनदेखा करता रहा,
तो एक दिन जनता भी मीडिया को अनदेखा कर देगी—
और वह दिन पत्रकारिता के लिए सबसे काला दिन होगा।
