मोदी सरकार (बीजेपी) ने विपक्ष से एक अहम राजनीतिक औजार छीनने का अब दांव चल दिया है। अपने जन्म से ही सपा और बसपा का नारा है-जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी। वही कांग्रेस से यह मुद्दा हथियाने की रणनीति और लोकसभा चुनाव के परिणामों से बीजेपी में भी अंदरखाने जातीय जनगणना कराने की मांग उठ रही थी। केंद्र सरकार के एकाएक लिए इस जातीय जनगणना कराने के फैसले का लिटमस टेस्ट भी बिहार चुनाव में हो जाएगा।
सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव सदन के अंदर और बाहर, जातीय जनगणना के समर्थन पर हमेशा मुखर रहे। बसपा संस्थापक कांशीराम की 1982 में आई चर्चित पुस्तक चमचा युग में शुरू से लेकर अंत तक भागीदारी का प्रश्न प्रमुखता से उभरकर सामने आया।
कई जिलों में सपा (SP) ने आंकड़े भी जारी किए
लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस के साथ मिलकर सपा ने जातीय जनगणना का राजनीतिक मुद्दे के रूप में बखूबी प्रयोग किया। इधर, सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने तो यहां तक कहना शुरू कर दिया कि यूपी में जिलेवार पीडीए (पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक) और गैर पीडीए अधिकारियों का डाटा जारी करेंगे। कई जिलों में तो सपा ने इसके आंकड़े भी जारी कर दिए।
जातीय जनगणना के पक्ष में आवाज बुलंद करती रही हैं : बीएसपी सुप्रीमों मायावती
बसपा प्रमुख मायावती भी अपने बचे वोट बैंक की रखवाली के लिए गाहे-बगाहे जातीय जनगणना के पक्ष में आवाज बुलंद करती रही हैं। लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा नेतृत्व को भी लगने लगा कि यह मुद्दा जनता में असर दिखा रहा है।
भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य भी कई बार सदन और उसके बाहर यह कह चुके हैं कि वे जातीय जनगणना के खिलाफ नहीं हैं। एक ऐसे समय में जब पहलगाम आतंकी हमले को लेकर वाक वीरों की संख्या बेतहाशा बढ़ गई है, जातीय जनगणना का फैसला राजनीतिक बहस के केंद्र बिंदु को बदलने का काम भी करेगा।
अपने खिलाफ कोई धारणा बनने देना नहीं चाहती बीजेपी
जेएनयू के सेवानिवृत्त शिक्षक और समसामयिक राजनीतिक मामलों के विशेषज्ञ प्रो. रवि कुमार कहते हैं कि भाजपा की राजनीति का सकारात्मक पक्ष यह है कि वे अपने खिलाफ कोई धारणा बनने देना नहीं चाहती। आम जनता में यह संदेश जा रहा था कि जातीय जनगणना न कराकर भाजपा ओबीसी हितों की अनदेखी कर रही है। इससे पहले कृषि कानूनों को भी भाजपा ने इसी सोच के साथ वापस ले लिया था।