आज देश में महंगाई, बेरोज़गारी, शिक्षा, स्वास्थ्य, कानून व्यवस्था और किसानों की हालत जैसे मुद्दे आम आदमी की ज़िंदगी से जुड़े हुए हैं, मगर अजीब बात ये है कि इन जरूरी सवालों पर प्राइम टाइम की बहसें नहीं होतीं। टीवी चैनलों पर सुबह से रात तक या तो विपक्ष को कोसा जाता है या फिर धर्म, जाति और विवाद खड़े करने वाले मुद्दों पर बहस होती है।
तो सवाल उठता है – क्या आज का प्राइम मीडिया अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ चुका है?
सच्चाई क्या है?
1. सरकारी विज्ञापन का दबाव:
ज्यादातर देश में बड़े मीडिया हाउस सरकार से मिलने वाले करोड़ों के विज्ञापन पर चलते हैं। अगर सरकार की नाकामी पर सवाल उठाया, तो विज्ञापन बंद। और फिर मीडिया का कारोबार ठप होने का डर। इसलिए वो सरकार से टकराने का जोखिम नहीं लेते।
2. मालिकाना हक और पूंजीवाद:
आज का मीडिया कॉर्पोरेट के हाथ में है। जिन पूंजीपतियों के बिज़नेस को सरकार से फायदा होता है, वही बड़े-बड़े मीडिया चैनल्स के मालिक हैं। ऐसे में भला वो सरकार की गलत नीतियों पर कैसे सवाल उठाएंगे?
3. देश की मीडिया का ध्यान भटकाने की रणनीति:
देश में जब भी कोई असली मुद्दा उठने लगता है – जैसे पेपर लीक, किसानों की मौत, बेरोज़गारी, महंगाई – तभी कोई धार्मिक या जातिगत विवाद वाला मुद्दा मीडिया में तूल पकड़ लेता है। लोग असली मुद्दे भूल जाते हैं और मीडिया का काम हो जाता है।
4. TRP की भूख:
मीडिया आज जनता को जागरूक नहीं, बल्कि मनोरंजन देने में लगा है। सरकार से सवाल पूछने की जगह, डिबेट में चीखने-चिल्लाने वाले ‘टीआरपी योद्धा’ बैठाए जाते हैं। मुद्दा हो या न हो, बस हंगामा चाहिए।
उदाहरण समझिए:
बेरोजगारी पर डिबेट नहीं, लेकिन किसी सेलिब्रिटी की लव लाइफ पर 2 घंटे की बहस।
मणिपुर हिंसा जैसे गंभीर मसले पर चुप्पी, लेकिन किसी बयान को लेकर हफ्तों बहस।
पेपर लीक और युवाओं के भविष्य पर सन्नाटा, लेकिन विपक्ष के नेताओं की गिरफ्तारी को दिनभर का ‘ब्रेकिंग न्यूज’ बना देना।
❓अब सवाल ये है – जनता क्या करे?
सोशल मीडिया पर आवाज़ उठाएं।
स्वतंत्र और वैकल्पिक मीडिया को सपोर्ट करें, जो सच दिखाने की कोशिश करता है।
फर्जी बहसों और भड़काऊ डिबेट से खुद को दूर रखें।
नेताओं से सवाल करना ना छोड़ें – लोकतंत्र में सरकार जनता के प्रति जवाबदेह होती है।
✍️ इसका समाधान ऐसे होगा
मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होता है, मगर जब वही सरकार की गोदी में बैठ जाए, तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता है। अगर मीडिया जनता के हक की आवाज़ नहीं उठाएगा, तो उसे सिर्फ ‘शोर मचाने वाली दुकान’ मान लेना और जनता को उस मीडिया को देखना ही बंद कर देना चाहिए ।
अब वक्त है कि जनता जागे – क्योंकि अगर जनता सोई रहेगी, तो मीडिया और सत्ता दोनों मिलकर उसे गुमराह करते रहेंगे।