जब 2005 में नीतीश कुमार ने पहली बार बिहार की कमान संभाली, तब बिहार को देश का सबसे पिछड़ा राज्य माना जाता था। सड़कों की हालत खराब थी, बिजली सपने जैसी लगती थी, और कानून व्यवस्था की तो बात ही मत कीजिए – लोग शाम ढलते ही घरों में बंद हो जाते थे।
तब लोगों को उम्मीद जगी – शायद अब बिहार बदलेगा।
और सच कहें, तो कुछ हद तक बिहार बदला भी। लेकिन सवाल यह है कि क्या बदलाव हर बाशिंदे तक पहुँचा? और अगर हाँ, तो आज भी बिहार से लाखों युवा रोज़गार के लिए क्यों पलायन कर रहे हैं?
1. नीतीश राज में हुए बदलाव – कुछ चमकते पहलू
✅ नीतीश कुमार ने सड़क और बिजली का विस्तार
नीतीश सरकार के पहले 10 सालों में बिहार की सड़कें बेहतर हुईं।
गांव-गांव तक बिजली पहुंचाने का काम तेजी से हुआ है।
ग्रामीण क्षेत्रों में पक्की सड़कें और पुल-पुलिया बनीं।
✅ नीतीश कुमार का शिक्षा और साइकिल योजना
लड़कियों के लिए साइकिल योजना (मुख्यमंत्री बालिका साइकिल योजना) से स्कूल जाने की दर बढ़ी।
प्राथमिक स्कूलों की संख्या और दाखिले बढ़े।
कुछ जिलों में लड़कियां पहली बार कॉलेज जाने लगीं।

✅ कानून व्यवस्था में सुधार (शुरुआती वर्षों में)
2005–2010 के बीच पुलिस का इकबाल बढ़ा।
संगठित अपराध पर लगाम लगी और आम जनता ने राहत की सांस ली।
2. लेकिन विकास अधूरा क्यों रह गया?
नीतीश कुमार ने बुनियादी ढांचा तो सुधारा, लेकिन रोजगार, उद्योग और स्थानीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में सरकार नाकाम रही।
❌ उद्योग नहीं लगे
बिहार में बड़े उद्योग नहीं आए, न ही कोई बड़ा प्राइवेट निवेश हुआ।
केंद्र और राज्य के बीच लगातार खींचतान की वजह से Special Status की मांग भी अधूरी रह गई वो भी जब ये हाल है जब बीजेपी और जेडीयू गठबंधन की सरकार में है केंद्र और राज्य में पूर्ण सहयोगी हैं।
IT सेक्टर, मैन्युफैक्चरिंग, या कोई भी ऐसा सेक्टर नहीं उभरा जहां बड़ी संख्या में युवाओं को नौकरी मिल सके।
❌ सरकारी नौकरियों की सीमित संख्या
बिहार में सरकारी नौकरी की उम्मीद अब एक लॉटरी जैसा सपना बन गई है।
सालों-साल भर्ती नहीं होती, और जब होती है तो पेपर लीक या भ्रष्टाचार की खबरें आती हैं।
शिक्षक भर्ती हो या पुलिस – हर जगह प्रक्रिया लंबी और भरी पड़ी है।
3. युवाओं का पलायन – मजबूरी या विकल्प नहीं?
हर साल लाखों युवा बिहार से बाहर जा रहे हैं।
दिल्ली, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में बिहारी मजदूरों की भारी संख्या है।
ज्यादातर युवा कम पढ़े-लिखे नहीं होते – इंजीनियर, ग्रेजुएट, ITI डिप्लोमाधारी तक भूखे पेट दूसरे शहरों में जा रहे हैं।
“माई-बाबूजी खेत बेचकर पढ़ाई करवाए, लेकिन नौकरी मिली तो नोएडा में गार्ड की।“
ये सिर्फ एक बिहारी युवा की कहानी नहीं है – यह लाखों घरों की सच्चाई है।

गांव खाली होते जा रहे हैं
पूरे गांव के गांव अब “पुरुष विहीन” हो गए हैं – सिर्फ बूढ़े और औरतें बचे हैं।
त्योहारों में घर लौटते हैं लोग, पर बाकी साल सूनापन घरों की दीवारों से टपकता है।
4. नीतीश सरकार की विफलता – क्यों नहीं रोक पाए पलायन?
नीति नहीं, नीयत की कमी – सिर्फ योजनाएं बनाने से कुछ नहीं होता, उन्हें निष्पक्षता और ईमानदारी से लागू करना भी ज़रूरी है।
बदलते गठबंधन और राजनीतिक अस्थिरता – बार-बार सत्ता बदलने से विकास की निरंतरता टूटी।
स्थानीय नेतृत्व का अभाव – पंचायत स्तर तक ईमानदार और प्रभावी नेतृत्व नहीं पहुंच सका।
5. एक भावनात्मक सच – “बिहार छोड़ना पड़ा, पर बिहार नहीं छूटा“
बिहार से बाहर रहने वाले हर युवा की आंखें तब भर आती हैं जब वो ट्रेन की खिड़की से गांव की हरियाली, मां का चेहरा, और पिता की थकी हुई आंखें देखता है।
“हम नौकरी करने आए हैं दिल्ली, पर नींद आज भी तो खटिया पे ही आती है, जहां माई दुपट्टा झलती थी।“
बिहार एक भावना है। एक रिश्ता है। पर दुख ये है कि इस रिश्ते को छोड़ना पड़ता है पेट के लिए।
बिहार में बीच रास्ते में मशाल बुझ सी गई
नीतीश कुमार ने बिहार को अंधेरे से उजाले की तरफ बढ़ाया, लेकिन बीच रास्ते में मशाल बुझ सी गई। सड़कें बनीं, बिजली आई, स्कूल खुले – पर नौकरी और सम्मानजनक जीवन नहीं मिल सका।
आज भी बिहारी युवा मेहनती है, ईमानदार है, लेकिन उसे अपने ही घर में अवसर नहीं मिल पा रहा। ये केवल सरकार की असफलता नहीं, यह एक पूरे सिस्टम की कमजोरी है।
बिहार बदला है, लेकिन अभी अधूरा। और जब तक यह अधूरापन खत्म नहीं होगा, तब तक बिहार का बेटा बाहर ही अपना सपना ढूंढता रहेगा।