बिहार

भारत की कहानी में “बिहार” कहां खड़ा है?

Bhaarat kee kahaanee mein “bihaar” kahaan khada hai?

Where does “Bihar” stand in the story of India?

 

भारत की कहानी में “बिहार” कहां खड़ा है?

आज बिहार उम्मीदों और निराशा के ऐसे दो राहों पर खड़ा है। जहा पिछले कई दशकों से बिहार ये दुर्दशा झेल रहा है, तो इसका कारण सिर्फ मंडल, कमंडल और जंगल राज नहीं है। बल्की इसकी असल वजह ‘राजनीति’ और राजनीतिकरण है, जिसमें ‘शासन’ कुछ ज्यादा, तो ‘नीतियां’ जरूरत से भी काफी कम रही है। भारत में शासन को लेकर एक बेहद प्रचलित कहावत है कि यहां वो सब कुछ जो गलत हो सकता है, वह लगातार गलत ही होता जाता है। बिहार में भी कुछ ऐसा ही हुआ है। चार दशकों तक इसके पीछे कांग्रेस थी। 1990 में जनता दल ने एक ऐसे चुनाव में कांग्रेस को बाहर का रास्ता दिखाया, जिसमें उसके 103 प्रत्याशियों की तो जमानत ही जब्त हो गई। इसके बाद 34 वर्षों से बिहार कांग्रेस मुक्त रहा है। और इन 34 वर्षों के दौरान बिहार में शासन की बागडोर पहले लालू परिवार (RJD) और फिर नीतीश कुमार (JDU) के हाथों में रही है। इसमें नीतीश पहले भाजपा के साथ और फिर भाजपा के बगैर सत्ता में रहें है, यानी की नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव एक साथ मिलकर दोनों ने सत्ता को भोगा। ये साफ है कि बिहार की यह दुर्दशा में हर पार्टी का हाथ रहा है।

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बिहार की अर्थव्यवस्था के ढांचे को देखते हुए निस्संदेह यह समझा जा सकता है कि यहां संसाधनों का गंभीर कमी है और इसे मुश्किलों से निकालने के लिए लगातार सहायता देने की जरूरत है। ज़ाहिर है कि सारा मामला पैसों का है, मगर इससे भी महत्वपूर्ण बात है कि यह पैसा किस तरह खर्च किये जा रहे है। यानी कि आखिरकार पूरा मुद्दा आकर टिकता है ‘शासन’ पर। यह अफसोस की बात है कि जिनके हाथ में सत्ता आती है, वो पूरी व्यवस्था पर कब्जा कर लेते हैं। बिहार की प्रमुख समस्या यह है कि यहां बेहद व्यवस्थित तरीके से कानून को व्यवस्था से अलग कर दिया गया है। व्यवस्था को हितों के अनुकूल बनाया गया है। वहीं, यहां कानून का शासन इस पर निर्भर करता है कि शासन कौन कर रहा और किस पार्टी का है। सत्ताधारियों को अपने चुनावी हितों की फिक्र रहती है और इसी के अधार पर संसाधनों का भी आवंटन होता है। जन सशक्तिकरण के कार्यक्रम अपने वोट बैंक के विकास तक सीमित रह गए हैं।

इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि बिहार को अपने इतिहास के बोझ से भी जूझना पड़ रहा है। सन् 2000 में बिहार के विभाजन के बाद संसाधन से समृद्ध क्षेत्रों को झारखंड के हिस्से में चले जाने से भी औद्योगिक राज्य बनने की संभावनाओं से बिहार को बंचित होना पड़ा। सरकारी उपकरणों के ऐतिहासिक राजनीतिकरण के चलते राज्य में सही निर्णय लेने का टालमटोल और निर्धनता की समस्या विकराल रूप लेती जा रही है। भारत में सामाजिक और आर्थिक बाधाओं पर एक अध्ययन में हमने पाया की सबसे बुरी हालत वाले 100 जिलों की सूची पर नजर डालने पर बिहार के 38 जिलों में से 26 इस सूची में शामिल थे।

94,163 वर्गकिलोमीटर क्षेत्र में फैले इस राज्य में 2015 तक के आंकड़ों के अनुसार कुल जनसंख्या तकरीबन 11 करोड़ चालीस लाख है। 36,143 रुपये के साथ इसकी प्रति व्यक्ति आय सभी राज्यों में सबसे कम है। जरा इस मोटे अनुमान पर गौर कर के देखिये, भारत की तकरीबन 10 फीसदी आबादी राष्ट्रीय औसत के आधे से भी कम प्रति व्यक्ति आय पर अपनी जिंदगी गुज़र – बसर करने पर मजबूर है।

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जब हम इन आंकड़ों को थोड़ा और गहराई से अध्ययन किया, तो हमने पाया कि पटना में प्रति व्यक्ति आय 63,063 रुपये है, जबकि मधेपुरा 8069 रुपये, सुपौल 8492 रुपये और श्योहर 7092 रुपये जैसे अति पिछड़े जिलों में प्रति व्यक्ति आय पटना के दसवें हिस्से से भी कम थी। ऐसे में ज़ाहिर है कि बिहार का हर तीसरा व्यक्ति गरीबी रेखा से नीचे अपनी जिंदगी का गुज़ारा कर रहा है। बिहार के प्रतिष्ठित नालंदा यूनिवर्सिटी के साथ कभी शिक्षा का केंद्र रहे बिहार की साक्षरता दर आज 61.80 फीसदी है, जो 2001 में भारत के राष्ट्रीय औसत से कम है और मॉरिटोनिया जैसे देश से भी नीचे है। लिंग विभाजन ने शिक्षा को लेकर राज्य में और खराब स्थिति पैदा कर दी है। 51.5 फीसदी महिला और 71.2 फीसदी पुरुष साक्षरता का आलम यह है कि बिहार में हर दस में से तीन पुरुष और हर दूसरी महिला निरक्षर है। इतना ही नहीं 2015 की संसद स्थायी समिति की रिपोर्ट के अनुसार भारत में स्कूल छोड़ने वाला हर पांचवां बच्चा बिहार का है। इसके अलावा शिशु मृत्यु दर, कुपोषण और मातृ मृत्यु दर के मामले बिहार की स्थिति अफ्रीकी देश जैसी है।

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नगरीकरण के मामले में भी बिहार की हालत खराब है। यहां की महज 11.29 फीसदी आबादी तथाकथित शहरों में रहती है, जबकि 88.71 फीसदी लोग गांवों में ही गुज़र-बसर कर रहे हैं। सामाजिक और आर्थिक जनगणना के हालिया आंकड़े बताते हैं कि 65 फीसदी ग्रामीण परिवारों के पास अपनी खुद की जमीन नहीं है। बगैर जमीन वाला यहां का हर दूसरा शख्स छुट-पुट मजदूरी करने पर मजबूर है। हर दस में से छह लोग कच्चे मकानों में रहते हैं। महज छह फीसदी परिवार ही ऐसे हैं, जहां कोई नौकरी कर रहा हो। 71 फीसदी परिवारों की कुल मासिक आय 10 हजार रुपये से भी कम है। हर 100 लोगों में से दो ही ऐसे हैं, जो टैक्स देते हैं। बिहार हर मायने में टालमटोल के नए रिकॉर्ड कायम कर रहा है।

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बिहार का सारा राजनीतिक संवाद शख्सियतों और चुनाव में जीतने या हारने वालों पर फोकस हो गया है। सवाल यह है कि क्या मोदी यहां अपना जादू बरकरार रख पाएंगे? 

सवाल नीतीश कुमार के खुद को बचा पाने का भी है। सवाल लालू की विरासत पर भी हैं, एक और नई पार्टी के गठन होने से जनता कि उम्मीदें जन सुराज पार्टी से बढ़ी है। अब ये सवाल निस्संदेह बिहार के आगामी चुनाव को बहुत बड़ा बना रहा हैं। मगर इसकी कई और वजहे भी हैं। बिहार को देखकर यह पता चलता है कि जातियां जनांकिकीय (जनसांख्यिकीय) लाभ का फायदे कैसे बेहद आसानी से जातियां जनांकिकीय आपदा में बदल सकते है। राज्य का अति पिछड़ापन उनके लिए दुषपरिणाम हो सकता है, जो भारत के भविष्य को दुबारा लिखना चाह रहे हैं। ऐसे में बिहार में चल रही बहस को लोभ -लुभावने व लच्छेदार बातों से आगे बढ़ना होगा और जात -पात से ऊपर उठना होगा। यहां सिर्फ सत्ता नहीं, बल्की व्यवस्था का भी परिवर्तन होना जरूरी है। इसके लिए राज्य के राजनीतिक तौर पर कमजोर हो चले संस्थानों को मजबूत बनाना होगा। यह एक सच्चाई है कि भारत की कहानी “बिहार” की कहानी के बगैर पूरी नहीं हो सकती।

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Note:-

यह ब्लॉग सामान्य जानकारी के लिए लिखा गया है, मुझे उम्मीद है की आपको यह आर्टिकल (आलेख ), लेख भारत की कहानी में “बिहार” कहां खड़ा है?”  जरुर पसंद आई होगी। हमारी हमेशा से यही कोशिश रहती है की रीडर को पूरी सही जानकारी प्रदान की जाये ।|

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By: KP

Edited  by: KP

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