पतियों की हत्या

“पतियों की हत्या की हर घटना ‘ट्रेंड’ क्यों बन जाती है? –  एकतरफा विचारो की पड़ताल”**

आजकल जैसे ही किसी पुरुष की हत्या में पत्नी या किसी महिला साथी का नाम जुड़ता है, एक अजीब किस्म का सामाजिक और मीडिया शोर मचने लगता है। कुछ सेकेंड में यह खबर “ट्रेंडिंग” बन जाती है। सोशल मीडिया मीम, चुटकुले, और वीडियो से पट जाता है। ऐसा माहौल बनता है कि जैसे हर पत्नी अपने पति की हत्या की योजना बना रही है। लेकिन क्या यह सच है? या यह एक गहरे और पक्षपाती विचारो की सतही अभिव्यक्ति है?

पतियों की हत्या

### **’नीले ड्रम’ से लेकर चुटकुलों तक**

मेरठ में सौरभ राजपूत की हत्या के बाद ‘नीला ड्रम’ एक प्रतीक बन गया—डर का नहीं, बल्कि मज़ाक का। इंटरनेट पर वीडियो बनाए गए, जहां पत्नियाँ अपने पतियों को ‘ड्रम में बंद कर देने’ की धमकी देती दिखती हैं। यह त्रासदी मज़ाक बन जाती है।

मगर सोचिए, जब कोई स्त्री अपने पति द्वारा प्रताड़ित होकर मारी जाती है, तो क्या हम उसे इसी चटखारे से देखते हैं? नहीं। तो फिर पुरुष की हत्या का मज़ाक क्यों?

### **हिंसा तो है, लेकिन क्यों होती है इसका भी विश्लेषण ज़रूरी है**

हां, यह सच है कि महिलाएं भी हिंसा करती हैं। लेकिन क्या पुरुष और स्त्री की हिंसा एक जैसी है?

स्त्री की हिंसा अक्सर व्यक्तिगत कारणों, असमान संबंधों या सामाजिक दवाबों की उपज होती है। जबकि पुरुषों द्वारा की गई हिंसा एक संगठित सामाजिक व्यवस्था से जुड़ी होती है—पितृसत्ता, सत्ता, और नियंत्रण की इच्छा से।

स्त्रियाँ वही मूल्य, वही परवरिश झेलती हैं जो मर्दों की प्रभुता को सर्वोपरि मानती है। ऐसे में कुछ महिलाएं इसी व्यवस्था से उपजी हिंसा की भाषा सीख लेती हैं। यह हिंसा, हालाँकि ग़लत है, लेकिन उसका चरित्र भिन्न है।

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### **क्यों हर बार स्त्री की हिंसा ही ‘ट्रेंड’ बनती है?**

जब कोई पुरुष हत्या करता है, बलात्कार करता है, दहेज के लिए जलाता है—तो वह *’अपराध’* बनकर अदालत की फ़ाइल में दर्ज हो जाता है। जबकि जब कोई स्त्री ऐसा करे, तो वह *’सनसनी’* बनकर सोशल मीडिया का कंटेंट बन जाती है।

यह दोहरा रवैया क्यों?

एक कारण यह भी है कि समाज अब भी स्त्री को हिंसा करने योग्य मानने को तैयार नहीं है। वह स्त्री को या तो देवी मानता है या अबला। जब वह इस फ्रेम से बाहर आती है, तो उसे या तो राक्षसी या मज़ाकिया बना दिया जाता है। यह भी एक किस्म की अस्वीकार्यता है—उसकी agency, उसकी सोच, उसकी स्वतंत्रता को नकारने की।

### **क्या प्रेमी का होना हत्या का कारण है? या कुछ और?**

ऐसी घटनाओं में अक्सर एक तीसरे पुरुष का ज़िक्र आता है—प्रेमी। लेकिन सवाल ये है कि क्या यह स्त्री की हिंसा है, या उस पर जबरन थोपी गई शादी, अवांछित रिश्ते, और उसके आत्मनिर्णय के दमन का नतीजा?

साथी चुनने का अधिकार, शादी करने या न करने की स्वतंत्रता अगर समाज नहीं देगा तो उस असंतोष की परिणति कई बार हिंसा के रूप में भी सामने आएगी। फिर भी, इसका अर्थ यह नहीं कि हत्या को न्यायोचित ठहराया जा सकता है।

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### **हिंसा की तुलना – एक ज़रूरी फ़र्क़**

स्त्री और पुरुष दोनों की हिंसा को नाजायज़ कहा जाना चाहिए, लेकिन यह भी समझना ज़रूरी है कि स्त्रियों पर होने वाली हिंसा अक्सर *उनके स्त्री होने की वजह से* होती है—जैसे भ्रूण हत्या, दहेज, बलात्कार, घरेलू हिंसा आदि।

जबकि पुरुषों के साथ ऐसी हिंसा *आमतौर पर किसी व्यक्तिगत कारण से* होती है, जैसे प्रेम-संबंध, धोखा, पैसों का विवाद आदि।

### **क्या किया जाए? – रास्ता क्या है?**

  1. **हर तरह की हिंसा का विरोध:** हिंसा कोई भी करे, किसी के साथ हो – उसका विरोध होना चाहिए। महिला अधिकारों के पक्षधर लोग भी हिंसा को कभी जायज़ नहीं ठहराते।
  2. **स्त्रियों को भी चाहिए आत्म-संयम:** अगर उन्हें हिंसा झेलनी पड़ रही है तो रास्ता कानूनी होना चाहिए, न कि प्रतिहिंसा। अपनी आज़ादी की लड़ाई हत्या या आक्रोश से नहीं, समझदारी और हिम्मत से लड़नी चाहिए।
  3. **डेटा जुटाना ज़रूरी:** अगर महिलाओं द्वारा की गई हत्याओं या हिंसा को लेकर आंकड़े सामने होंगे, तो समाज और नीति-निर्माता दोनों ज़्यादा ईमानदारी से समझ पाएँगे कि समस्या कहाँ है।
  4. **विमर्श का संतुलन:** सोशल मीडिया को मज़ाक बनाने की आदत छोड़नी होगी। स्त्री हो या पुरुष—हत्या, हत्या है। मज़ाक नहीं।

 

### **अंत में…**

हम अगर वाक़ई हिंसा-मुक्त, बराबरी वाला समाज बनाना चाहते हैं, तो यह नहीं हो सकता कि एक लिंग की हिंसा को ‘सिस्टम की उपज’ कहकर खारिज करें और दूसरी की हिंसा को ‘मनोरंजन’ बना दें।

हिंसा को हमें कारणों सहित समझना होगा, और उसका इलाज भी उतनी ही संवेदनशीलता से करना होगा। वरना, यह समाज न तो स्त्रियों के लिए सुरक्षित रहेगा, न पुरुषों के लिए न्यायसंगत।

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Note:

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By: KP
Edited  by: KP

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