AVN News Desk: लोकसभा चुनाव के दूसरे चरण का मतदान 26 अप्रैल को 13 राज्यों की 88 सीटों पर हो गया है। एकमात्र दक्षिणी राज्य केरल को छोड़कर, जहां बीजेपी 2019 में अपना खाता खोलने में विफल रही थी, बीजेपी और उसके सहयोगियों के पास इन सीटों का बड़ा हिस्सा है।

वही गौरतलब यह है कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी के अभियान के लेहजे और बातों में अचानक से बदलाव आ गाया है। ‘विकास’, ‘बढ़ती अर्थव्यवस्था’ और सरकारी योजनाओं के सामान्य मिश्रण से होते हुए विभिन्न स्थानीय और सामयिक मुद्दों को सामने रखते हुए पीएम नरेंद्र मोदी ने अब अपना रुख बदल दिया है और तथाकथित मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए कांग्रेस पार्टी पर हमला करने लगे हैं, ऐसी भाषा और काल्पनिक छवि का इस्तेमाल कर रहे हैं जिसने कई विपक्षी दलों को चुनाव कानूनों के उल्लंघन का आरोप लगाते हुए चुनाव आयोग के पास शिकायत दर्ज करने के लिए अब मजबूर कर दिया है। हालांकि प्रधानमंत्री और भाजपा के अन्य नेता इस रणनीति पर कायम हैं। अब सवाल यह उठाता है कि रुख में ये बदलाव क्यों?

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लोकसभा का पहला चरण बीजेपी/एनडीए के लिए निराशाजनक ही रहा

वही 21 राज्यों की 102 सीटों पर हुए पहले चरण के मतदान में, ऐसा लगता है कि सत्तारूढ़ दल को इस बात का एहसास हो गया है और जिस बात को चारों ओर से रिपोर्ट किया जा रहा था – वह यह है कि 2014 और 2019 के पिछले चुनावों की तुलना में कोई ‘मोदी लहर’ या ‘मोदी जादू’ नहीं दिख रहा है। ऐसा लगता है कि कई आर्थिक मुद्दों, मुख्य रूप से बेरोजगारी और महंगाई ने बीजेपी के हाई-वोल्टेज अभियान को प्रभावित किया है।

इसके अलावा, बीजेपी के प्रचार तंत्र द्वारा लगाए गए “अब की बार, 400 पार” के नारे ने तब बड़ी बेचैनी पैदा कर दी थी – तब यह लगने लगा था कि क्या वे संविधान में बदलाव लाने के लिए इतना बड़ा बहुमत हासिल करने का लक्ष्य को रख रहे हैं? वही यह चुनाव दो राज्यों (झारखंड और दिल्ली) के मुख्यमंत्रियों की गिरफ्तारी से भी जुड़ा हुआ मसला है, दोनों ही विपक्षी गठबंधन इंडिया गुट से जुड़े हैं, और केंद्र सरकार की एजेंसियों द्वारा विपक्षी नेताओं के खिलाफ लगातार छापेमारी और कार्रवाई की जा रही है। इन सबके कारण बीजेपी की छवि एक अहंकारी पार्टी के रूप में बदलती जा रही है, जो लोगों की आकांक्षाओं पर चोट करती नज़र आती है।

बीजेपी और उसके मुख्य नेता, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लोगों का मोहभंग का पता इस बात से चलता है कि, पिछले चुनाव में मतदान लगभग 70 फीसदी से घटकर, वर्तमान चुनाव में लगभग 65 फीसदी तक रह गया दिखता है। कुछ विश्लेषकों का तो यह कहना है कि मतदान प्रतिशत में गिरावट वहीं आई है जहां बीजेपी की सीटें अधिक हैं। इसका मतलब यह है कि लोग अब उन सभी बातों पर विश्वास नहीं कर रहे हैं जो बीजेपी और उसके नेता प्रचार के दौरान कह रहे हैं।

इन घटनाक्रमों ने, शायद, बीजेपी को इस निष्कर्ष पर पहुंचा दिया है कि इस चुनाव को जीतने के लिए, और 400+ सीटों के अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए उसे कुछ और शक्तिशाली हथियारों की आवश्यकता अब करना पड़ेगा है।

2019 में दूसरे चरण की सीटों पर बीजेपी का खूब दबदबा था

चुनाव आयोग ने यह भी घोषणा की थी कि दूसरे चरण में 89 सीटों पर मतदान होगा। लेकिन मध्य प्रदेश में बैतूल में एक उम्मीदवार की मृत्यु हो जाने के बाद इसे तीसरे चरण में स्थानांतरित कर दिया गया है। शेष 88 में से, असम की पांच सीटें और जम्मू-कश्मीर की एक सीट नए सिरे से परिसीमित की गई हैं और इसलिए 2019 से इसकी तुलना नहीं की जा सकती है। अब 82 सीटें बचती हैं। इनमें से, मणिपुर की 1 सीट को केवल आंशिक रूप से कवर किया जा रहा है, बाकी पर पहले चरण में मतदान हो चुका है।

शेष 81 सीटों में से, बीजेपी और उसके सहयोगियों के पास 55 सीटें थीं, जबकि इंडिया ब्लॉक के पास 23 सीटें थीं। लेकिन इंडिया ब्लॉक की सीटों की संख्या में सीधे केरल से 20 सीटें शामिल हैं (19 कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट और एक सीट लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट के पास थी)। शेष तीन सीटें इंडिया ब्लॉक की 1 बिहार में और 2 कर्नाटक से थीं।

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बीजेपी और उसके सहयोगियों ने बिहार में चार सीटें जीती थीं; तीन छत्तीसगढ़ में; कर्नाटक में 14 में से 11 और एक निर्दलीय, जो अब बीजेपी में शामिल है और वह मांड्या से फिर से चुनाव लड़ रही है; सभी छह सीटें मध्य प्रदेश में; महाराष्ट्र में आठ में से सात, अमरावती से निर्दलीय उम्मीदवार थीं जो कि अब बीजेपी उम्मीदवार के रूप में फिर से चुनाव लड़ रही हैं; वही राजस्थान की सभी 13 सीटें; त्रिपुरा की एकमात्र सीट; उत्तर प्रदेश की आठ में से सात सीटें और पश्चिम बंगाल की सभी तीन सीटें बीजेपी के पास थी।

एक मोटे अनुमान के अनुसार, 81 सीटों में से कम से कम 20 सीटों पर मुस्लिम बहुलता है, ज्यादातर केरल में, लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल में भी ऐसा है। इसलिए, अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने के प्रचार में बदलाव की कुछ तात्कालिक प्रासंगिकता है।

लेकिन बड़ी तस्वीर को नज़र अंदाज नहीं किया जाना चाहिए – ‘तुष्टीकरण’ की बयानबाजी और बमुश्किल छिपी अल्पसंख्यक विरोधी आक्रामकता, लंबे समय से बीजेपी की पसंद के हथियार रहे हैं। राम मंदिर के शुरुआती अभिषेक, समान नागरिक संहिता के बारे में शोर, और ‘लव जिहाद’, घुसपैठ, जनसंख्या लाभ, अंधराष्ट्रवाद आदि जैसे अन्य प्रचारित मुद्दों के साथ, चुनाव प्रचार का यह भड़काऊ मुद्दा हमेशा इस्तेमाल किया गया है, कभी-कभी मोन रूप से, कभी-कभी प्राथमिक रूप से इनका इस्तेमाल हुआ है।

साम्प्रदायिक विचार शायद ही काम करे

मुख्यधारा की मीडिया और कई टिप्पणीकारों का मानना है कि बीजेपी की इस रणनीति से धार्मिक आधार पर लोगों का ध्रुवीकरण होगा और राजनीतिक उद्देश्यों के लिए जानबूझकर पैदा किए गए जहरीले विभाजन को बढ़ावा मिलेगा। निस्संदेह, यह ख़तरा भी मंडरा रहा है। लेकिन, पहले के समय के विपरीत, आम लोगों में इस चाल के प्रति स्पष्ट मोहभंग हो चुका है। देश में बढ़ती असमानताएं, बढ़ता जातिगत विभाजन, आर्थिक कुप्रबंधन के कारण उत्पन्न संकट जो वास्तव में अमीरों का पक्षधर है, और विभिन्न वादों जैसे “2 करोड़ नौकरियां”, “मूल्य वृद्धि को नियंत्रित करना” को पूरा करने में बीजेपी सरकार की स्पष्ट विफलता”, आदि और संविधान में निहित लोकतांत्रिक अधिकारों के निरंतर , हिंदुत्व के कारणों के समर्थन, या सांप्रदायिक हितों की रक्षा के दावों से उत्पन्न होने वाली किसी भी सहानुभूति को पीछे छोड़ दिया है।

बहुप्रचारित राम मंदिर प्राण-प्रतिष्ठा समारोह के कारण बीजेपी के प्रति समर्थन में कोई भी बढ़ोतरी नहीं दिख रही है, क्योंकि समारोह का संचालन खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कर रहे थे। रिपोर्टों और सर्वेक्षणों के अनुसार, मतदान विकल्पों के निर्धारण में मंदिर मुद्दे का कोई खास महत्व नहीं है। बेशक, इसका मतलब यह भी हो सकता है कि बीजेपी आगे बढ़ने की कोशिश करेगी और भी अधिक विभाजनकारी रणनीति अपनाएगी। लेकिन संभावना ये है कि लोग इसे देखकर ज्यादा खुश नहीं होंगे। और जिस प्रकार जनता अब बाते रोजगार, महंगाई का मुद्दा को उठाने लगी है इससे भी बीजेपी का होस उड़ा हुआ। वही अब जो भी हो, संवैधानिक सिद्धांतों की रक्षा करना और देश में हर जगह लोगों की एकता को बनाए रखना विपक्ष के महत्वपूर्ण कर्तव्यों में से एक होना चाहिए।

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