AVN News Desk New Delhi: सर्वोच्च न्यायालय यानी सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड पर रोक लगा दी है. सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड को असंवैधानिक बताया है और इस पॉलिसी को रद्द कर दिया है. सर्वोच्च न्यायालय ने का कहना था कि चुनाव बॉन्ड की योजना सूचना के अधिकार (RTI) के खिलाफ है. कोर्ट ने चुनाव आयोग से कहा है कि वो 2019 से अब तक की जानकारी को तलब करे. बॉन्ड जारी करने वाले एसबीआई को यह जानकारी देनी ही होगी कि अप्रैल 2019 से लेकर अब तक कितने लोगों ने कितने-कितने रुपए के चुनावी बॉन्ड खरीदे हैं. एसबीआई (स्टेट बैंक ऑफ इंडिया) तीन हफ्ते में यह जानकारी देगी. उसके बाद ही चुनाव आयोग जनता तक यह जानकारी पहुंचाएगा. आइए अब जानते हैं कि चुनावी बॉन्ड का मतलब क्या है और अब इसका क्या असर होगा?
दरअसल, चुनावी बॉन्ड को भारत सरकार ने आरटीआई के दायरे से बाहर रखा है. यानी आम जनता आरटीआई के तहत चुनावी बॉन्ड से संबंधित कोई भी जानकारी नहीं मांग सकती है. जबकि कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि, वोटर्स का हक है कि वो पार्टियों के फंड के बारे में जानकारी रखें. चुनाव आयोग को भी इलेक्टोरल बॉन्ड से संबंधित जानकारी बेवसाइट पर देनी ही होगी. सरकार की दलील थी कि इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए पॉलिटिकल फंडिंग में ब्लैक मनी और गड़बड़झाला को रोक सकेगा. जबकि कोर्ट ने कहा कि, काला धन रोकने के दूसरे भी रास्ते हैं.
जो चुनावी बॉन्ड इनकैश नहीं हुए हैं, वे वापस करेंगे
फिलहाल, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अब चुनावी बॉन्ड को ना बैंक बेच सकेंगे और ना ही जमा कर सकेंगे. जिन बैंकों में किसी का खाता है, वे अब पार्टियों के खाते में चुनावी चंदा जमा बिलकुल भी नहीं कर सकेंगे. स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) को राजनीतिक दलों द्वारा इनकैश कराए गए चुनावी बॉन्ड का विवरण भी प्रस्तुत करना होगा. वहीं, इनकैश नहीं कराए गए इलेक्टोरल बॉन्ड की राशि खरीदार के खाते में अब वापस करनी होगी.
सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बांड योजना को अभी असंवैधानिक करार दिया है. कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि यह योजना नागरिकों के सूचना के अधिकार का उल्लंघन करती है, जिससे संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर असर सीधा पड़ता है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है, जारीकर्ता बैंक (एसबीआई) को चुनावी बॉन्ड जारी करने पर तत्काल रोक लगाने का आदेश भी दिया है.

एसबीआई की 29 ब्रांच में जारी किए जाते है चुनावी बॉन्ड
चुनावी बॉन्ड जमा करने को लेकर देशभर में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की अधिकृत कुल 29 ब्रांच हैं. जहां पर कोई भी चुनावी बॉन्ड आसानी से खरीद सकता है और राजनीतिक पार्टियों को फंड दे सकता है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने जारीकर्ता बैंक (एसबीआई) को चुनावी बॉन्ड जारी करने पर तत्काल रोक लगाने का आदेश भी दिया है. यानी कि अब इस योजना पर ब्रेक लग गया है. इससे राजनीतिक दलों की मुश्किलें और बढ़ने वाली हैं. चूंकि आम चुनाव यानी लोक सभा चुनाव करीब हैं और पार्टियों को चुनावी चंदे की सबसे ज्यादा जरूरत होगी.
चुनावी बॉन्ड स्कीम क्या है…
2 जनवरी 2018 में केंद्र सरकार चुनावी बॉन्ड की योजना लेकर आई थी.
– चुनाव बॉन्ड के जरिए राजनीतिक पार्टियों को चंदा दिया जाता है.
– कोई भी भारतीय नागरिक या कंपनी-कारोबारी-कॉरपोरेशन चुनावी बॉन्ड को खरीद सकते हैं.
इस योजना के तहत अधिकृत बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को बनाया है. यही एसबीआई धन जारी करता है. स्टेट बैंक ऑफ की अधिकृत ब्रांच से चुनावी बॉन्ड खरीदने की व्यवस्था की गई है.
1 से हजार, 10 हजार, एक लाख, 10 लाख और एक करोड़ मूल्यों के बॉन्ड खरीद सकते हैं.राजनीतिक दलों को चुनावी बॉन्ड जारी होने से 15 दिन के भीतर ही इनकैश कराना होता है. इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए चंदा देने वाले डोनर यानी चंदा देने वाले व्यक्ति का नाम और अन्य जानकारी दर्ज नहीं की जाती थी. इस प्रकार दानकर्ता यानी व्यक्ति गोपनीय हो जाता था. किसी व्यक्ति या कंपनी की तरफ से खरीदे जाने वाले चुनावी बॉन्ड की संख्या पर कोई भी लिमिट तय नहीं थी. जिस भी पार्टी को चंदा देना होता था, उसके नाम से बॉन्ड को खरीदा जाता था और वो पैसा संबंधित राजनीतिक दल को मुहैया करा दिया जाता था. कोई भी व्यक्ति अकेले या अन्य व्यक्तियों के साथ संयुक्त रूप से भी चुनावी बॉण्ड खरीद सकता था. जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 29ए के तहत पंजीकृत राजनीतिक दल चुनावी बॉण्ड स्वीकार करने के पात्र हो जाते थे.
बस शर्त यही थी कि उन्हें लोकसभा या विधानसभा के पिछले चुनाव में कम से कम एक प्रतिशत वोट मिले हों. चुनावी बॉण्ड को किसी पात्र राजनीतिक दल द्वारा केवल अधिकृत बैंक के खाते के माध्यम से ही भुनाया जाता था. बॉन्ड खरीदने के पखवाड़े भर के भीतर संबंधित पार्टी (राजनितिक दल) को उसे अपने रजिस्टर्ड बैंक खाते में जमा करने की अनिवार्यता होती थी. अगर पार्टी इसमें विफल रहती है तो बॉन्ड निरर्थक और निष्प्रभावी यानी रद्द हो जाता था. कोई भी व्यक्ति इलेक्टोरल बॉन्ड्स खरीद कर अपनी पसंद के राजनीतिक दल को चंदे के रूप में दे सकता था. ये व्यवस्था दानकर्ताओं की पहचान नहीं खोलती यानी नाम सार्वजनिक नहीं करती थी और इसे टैक्स में भी छूट प्राप्त है. ओर आम चुनाव में कम से कम 1 फीसदी वोट हासिल करने वाले राजनीतिक दल को ही इस बॉन्ड से चंदा हासिल हो सकता था. ये बॉन्ड नकद में नहीं खरीदे जा सकते और खरीदार को बैंक में केवाईसी (अपने ग्राहक को जानो) फॉर्म जमा करना ही होता था. केंद्र ने इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को लाने के लिए लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951, कंपनी अधिनियम 2013, आयकर अधिनियम 1961, और विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम 2010 में संशोधन भी किए थे. संसद से पास होने के ही बाद 29 जनवरी 2018 को चुनावी बॉन्ड योजना को अधिसूचित किया गया था.
क्या असर होगा अब…
केंद्र सरकार का कहना है कि पारदर्शिता के लिए चुनावी बॉन्ड बेहद ही जरूरी है. काले धन पर भी रोक लगेगी. चुनाव आयोग का कहना है कि इससे पारदर्शिता खत्म होगी और फर्जी कंपनियां भी खुलेंगी. रिजर्व बैंक का कहना है कि चुनावी बॉन्ड योजना से मनी लॉन्ड्रिंग का भी खतरा है. ब्लैक मनी को भी बहुत बढ़ावा मिलेगा. इलेक्टोरल बॉन्ड फाइनेंस एक्ट 2017 के तहत ही लाए गए थे. यह बॉन्ड साल में चार बार जनवरी महीने, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर माह में जारी किए जाते थे. इसके लिए ग्राहक बैंक की शाखा में जाकर या बैंक की वेबसाइट पर ऑनलाइन जाकर इसे खरीद सकता था. हाल ही में 2 जनवरी से 11 जनवरी तक चुनावी बॉन्ड के लिए विंडो को खोला गया था. बीते महीने 11 जनवरी को ही विंडो बंद हो गया था. जो चंदा आया होगा, वो 15 दिन में ही इनकैश हो गया था.
चुनावी बॉन्ड के लिए एक बार फिर से विंडो खोली जानी थी. लेकिन कोर्ट के फैसले के चलते इसे अब टाल दिया था. आम चुनाव से ठीक पहले ही चुनावी बॉन्ड पर रोक लग गई है. ऐसे में अब चुनावी चंदे लेने के प्लान पर राजनीतिक दलों को झटका लगा है.
राजनीतिक दलों को चंदे की समस्या से अब जूझना होगा. चुनाव में खर्च के लिए अन्य सोर्स पर भी बात करनी होगी. आगे चंदा कैसे लिया जाएगा, इसका भी विकल्प तलाशना होगा. चुनाव आयोग से भी राय-मशविरा करनी होगी. सर्वोच्च न्यायालय से भी विकल्प देने की मांग की जा सकती है.
सर्वोच्च न्यायालय ने क्या कहा है…
सर्वोच्च न्यायालय का कहना था कि अभी किस पार्टी को कितना चंदा मिल रहा है- वो कौन लोग हैं जो पार्टियों को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए चंदा तो दे रहे हैं और बदले में अपना काम करवा रहे हैं, यह पारदर्शी नहीं है. यह स्कीम आपत्तिजनक है. योजना साफ और बिलकुल स्पष्ट होनी चाहिए.
कोर्ट ने कहा है कि, नागरिकों का यह जानने का अधिकार है कि सरकार का पैसा कहा से आता है और कहां जाता है. कोर्ट ने माना है कि जो लोग भी बॉन्ड खरीदने वाले हैं और जिसे दे रहे हैं- ऐसे गुमनाम चुनावी बॉन्ड के बारे में सूचना के अधिकार के तहत जानकारी होनी ही चाहिए. जानकारी से रोकना RTI नियम का उल्लंघन है.
आंकड़े यह बताते हैं कि जो दल भी सत्ता पक्ष में रहा है, उसे सबसे ज्यादा चुनावी फंड मिला है. जब इलेक्टोरल बॉन्ड नहीं थे, तब भी तो सत्ता पक्ष ही चंदे पाने के मामले में सबसे आगे रहता था. या फिर जिस दल यानी पार्टी की सत्ता में आने की संभावना सबसे ज्यादा है. केंद्र सरकार का ये कहना था कि पारदर्शिता लाने के लिए ही इलेक्टोरल बॉन्ड लेकर आए थे. ताकि कोई भी पार्टी अपने आय और व्यय को साफ रखे और चुनाव आयोग को जानकारी देने के लिए बाध्य हो जाए.
याचिकाकर्ता का कहना था कि सबको समान अवसर दिए जाएं, इसका सीधे तौर पर उल्लंघन हो रहा है. सत्तारूढ़ दल या सत्ता में आने वाले पार्टी को बहुत ज्यादा पैसा मिलता है. क्योंकि ये सब कॉरपोरेट घराने उनको ही पैसा देते हैं और जो सत्ता में आने पर अपने हित से जुड़े काम करवाते हैं और बिजनेस में मदद लेते हैं. चंदा लेने वाली पार्टी उनके एहसान के तले पूरी तरह से दबी रहती है. लिहाजा उनके अनुसार ही काम करती है और गैरकानूनी काम को भी कानूनी अमलीजामा पहनाने से पीछे नहीं हटती है. ये गोपनीयता सूचना के अधिकार का पूरी तरह हनन है.
याचिकाकर्ता का कहना है कि ये सर्वोच्च न्यायालय का फैसला मील का पत्थर साबित होगा. काला धन रोकने की प्राथमिकता भी सरकार की है. लेकिन इसका तरीका दूसरा ही होना चाहिए.
भारतीय स्टेट बैंक को 6 मार्च, 2024 तक चुनावी बॉन्ड के जरिए चंदे का विवरण और चुनाव आयोग को राजनीतिक दलों का विवरण पेश करने के लिए कहा गया है.
सुप्रीम कोर्ट ने आयकर अधिनियम और जन प्रतिनिधित्व अधिनियम में किए गए संशोधनों को भी रद्द कर दिया है, जिसमें चंदे को गुमनाम बना दिया था. 2019 में यह मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा था. सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 2 नवंबर 2023 को फैसला सुरक्षित रख लिया था. सुनवाई के 4 साल बाद अब कोर्ट का यह फैसला आया है.