आज के भारत ने जहां चांद पर अपना यान उतार चुका है, वहीं ज़मीन पर इंसान अब भी जाति जात-पात की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है। तकनीकी और विज्ञान में चाहे जितनी भी तरक्की कर लें, अगर सोच में अब भी जाति का जहर है, तो इंसानियत का कोई मतलब नहीं बचता। जाति का यह ज़हर न सिर्फ गांवों बल्कि अब शहरों और संसद तक फैल चुका है।

जाति का खेल – सत्ता से सड़क तक

जातिवाद का इस्तेमाल आज सबसे ज्यादा राजनीति में हो रहा है। हर नेता अपनी जाति के नाम पर वोट मांगता है और सत्ता में आने के बाद उसी जाति को प्राथमिकता देता है। उत्तर प्रदेश के एटा ज़िले में भागवत कथा वाचक मुकुट मणि यादव पर हमला सिर्फ इसलिए होता है क्योंकि वो पिछड़ी जाति से हैं और धर्म की व्याख्या कर रहे थे। ऐसे में सवाल उठता है – क्या धार्मिक मंच भी अब जातिया श्रेष्ठता का हथियार बन गया है?

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एटा ज़िले में भागवत कथा वाचक मुकुट मणि यादव का जबरन सर मुड़ते हुए

ओडिशा के बालासोर ज़िले में एक दलित

युवक को मंदिर में प्रवेश करने पर पीट-पीटकर अधमरा कर दिया गया। वहीं मध्य प्रदेश में हाल ही में एक आदिवासी महिला को पेड़ से बांधकर मारने की घटना सामने आई, क्योंकि उसका “नीच जाति” में होना कुछ ऊंची जाति वालों को नागवार गुज़रा।

जाति क्या थी और क्या बन गई?

जाति व्यवस्था कभी पेशे आधारित थी — जैसे लोहार, बढ़ई, किसान, ब्राह्मण आदि। लेकिन अब यही जातियां ऊंच-नीच, भेदभाव और हिंसा का कारण बन गई हैं। एक व्यक्ति की कीमत उसके काम से नहीं, उसकी जाति से आंकी जाने लगी है।

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ताजा आंकड़े (मई-जून 2025)

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्ट के अनुसार 2025 के मई-जून में ही जातिय हिंसा के 1000 से ज्यादा मामले सामने आए।

यूपी में सबसे अधिक 286 केस जातिय भेदभाव व उत्पीड़न के दर्ज हुए।

ओडिशा में दलितों पर हमले के मामलों में 40% की वृद्धि हुई है।

मध्य प्रदेश में SC/ST एक्ट के तहत 120 से भी अधिक नए मामले दर्ज हुए, जिनमें से ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों से ही हैं।

क्या कहता है डेटा?

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, 2024 में जाति आधारित हिंसा के 65,000 से ज़्यादा केस दर्ज हुए।
• लोकनीति-CSDS के सर्वे में 72% लोग मानते हैं कि आज भी भारत में जाति एक बड़ा सामाजिक मुद्दा है।
• नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (NFHS) के मुताबिक ग्रामीण इलाकों में 45% लोग आज भी अलग जाति के लोगों के साथ भोजन करने में असहज हैं।

 इमोशनल पहलू: जब इंसानियत हार जाती है

कल्पना कीजिए एक माँ अपने बेटे को इस उम्मीद में पढ़ा रही है कि वो बड़ा अफसर बनेगा। लेकिन जब उसे नौकरी मिलती है, तो विभाग में उसे “चमार” या “पासी” कहकर नीचा दिखाया जाता है। क्या यही है हमारे समाज की तरक्की?

एक स्कूल में बच्चा सिर्फ इसलिए दूसरे बच्चों के साथ नहीं बैठ सकता क्योंकि उसकी जाति अलग है। यही बच्चा जब बड़ा होता है तो या तो जातीय हीनता में घुटता है या फिर नफरत में पनपता है।

 जाति जाती क्यों नहीं?

परंपरा और पाखंड: पीढ़ी दर पीढ़ी जातिवादी सोच का हस्तांतरण हुआ है।

राजनीतिक लाभ: नेता जाति को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करते हैं।

सामाजिक ढांचा: शादी, पूजा, नौकरी सबमें जाति को प्रमुखता दी जाती है।

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 रास्ता क्या है?

शिक्षा से शुरुआत होनी चाहिए। स्कूलों में जातिवाद के खिलाफ संवेदनशीलता सिखाना अनिवार्य हो।

राजनीति से जाति को अलग करें। आरक्षण को हक की तरह दें, पर जाति पर आधारित वोट मांगना अपराध बनना चाहिए।

मीडिया की ज़िम्मेदारी है कि ऐसी घटनाओं को प्रमुखता दे, न कि केवल चुनावी जातीय समीकरण दिखाए।

हम और आप मिलकर अपने-अपने घर, मोहल्ले से यह सोच खत्म करें कि कोई जाति ऊंची या नीची होती है।

इंसानियत का क्या हुआ? क्या हम ये सब भूल गए हैं:

• कि खून सबका लाल होता है,
• दर्द सबको होता है,
• और आंसुओं की कोई जाति नहीं होती?
इंसानियत वही होती है जो भेद मिटाए, जोड़ने का काम करे, नफरत नहीं फैलाए। आज जरूरत है कि हम अपने बच्चों को ये सिखाएं कि हर व्यक्ति पहले इंसान है, फिर कुछ और।

 क्या वाकई इंसानियत से बड़ी है जाति?

इस सवाल का जवाब आप और हम सबको मिलकर देना होगा। मुकुट मणि यादव पर हमला हो या ओडिशा के दलित का अपमान – ये सिर्फ एक व्यक्ति नहीं, पूरे समाज की आत्मा पर चोट है। जब तक हम इंसान को सिर्फ उसकी जाति से पहचानते रहेंगे, तब तक इंसानियत हारती रहेगी। अब वक्त है कि हम आवाज़ उठाएं – जाति नहीं, इंसानियत ज़िंदा रहे!

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