यूपी में सरकारी स्कूल : “बेटा पढ़ेगा, बेटी पढ़ेगी तभी तो आगे बढ़ेगा”, ये सिर्फ एक नारा नहीं, बल्कि हर गरीब मां-बाप की उम्मीद है। लेकिन जब वही मां-बाप देख रहे हैं कि उनके गांव का सरकारी स्कूल ताले में जकड़ता जा रहा है, तो सवाल उठता है – क्या वाकई शिक्षा अब ‘सेवा’ नहीं, ‘सुविधा’ बन चुकी है?

उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार एक तरफ “सर्व शिक्षा अभियान” और “निपुण भारत मिशन” की बात करती है, वहीं दूसरी तरफ कई जिलों में सरकारी स्कूलों को बंद किया जा रहा है। आखिर इस विरोधाभास की वजह क्या है? चलिए, जानते हैं जमीनी सच्चाई।

सरकारी
यूपी सीएम योगी आदित्यनाथ

1. सरकारी स्कूल बंद करने की असली वजहें

1.1 कम नामांकन वाले स्कूलों की पहचान

सरकार का कहना है कि जिन स्कूलों में बच्चों की संख्या 50 से कम है, उन्हें या तो दूसरे स्कूलों में विलय किया जा रहा है या फिर बंद किया जा रहा है।
➡ 2023 की UDISE+ रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश में ऐसे 11,000 से ज्यादा प्राथमिक स्कूल हैं जहां छात्र संख्या 50 से भी कम है।

1.2 संसाधनों का पुनर्वितरण

शासन का तर्क है कि शिक्षक, किताबें, मिड डे मील जैसी सुविधाएं छोटे-छोटे स्कूलों में बिखरने की बजाय एक ही जगह पर केंद्रित हों, तो बेहतर गुणवत्ता वाली शिक्षा मिल सकती है।

1.3 डिजिटल और मर्जर प्लानिंग

सरकार अब ‘एक गांव – एक स्कूल’ मॉडल की ओर बढ़ रही है। छोटे स्कूलों को मर्ज कर एक बड़ा कम्पोजिट स्कूल बनाने की योजना है, ताकि इन्फ्रास्ट्रक्चर और फैकल्टी मजबूत हो।

2. लेकिन इससे नुकसान किसे हो रहा है?

2.1 ग्रामीण गरीब बच्चे सबसे ज्यादा प्रभावित
गांव के बच्चे जो पैदल स्कूल जाते थे, अब उन्हें 3-5 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। जिनके पास साइकिल या साधन नहीं, उनके लिए ये दूरी स्कूल छोड़ने की वजह बन रही है।

➡ ललितपुर जिले की 12 वर्षीय पिंकी अब स्कूल नहीं जाती क्योंकि उसका स्कूल बंद कर दूर के गांव में मिला दिया गया है।

2.2 महिला छात्रों की संख्या में गिरावट
एक 2022 के सर्वे के मुताबिक, स्कूल मर्जर के बाद 6वीं से ऊपर की छात्राओं की उपस्थिति में 13% तक गिरावट आई है। दूर के स्कूल भेजने में कई अभिभावक असहज महसूस करते हैं।

2.3 शिक्षकों की बेरुखी और बोझ

बड़े स्कूलों में छात्र संख्या बढ़ने से शिक्षकों पर काम का दबाव बढ़ा है, और वे बच्चों पर व्यक्तिगत ध्यान नहीं दे पा रहे हैं।

3. क्या कहती है सरकार?

उत्तर प्रदेश के शिक्षा विभाग का कहना है कि:

“हम स्कूल बंद नहीं कर रहे, बल्कि कम संसाधनों वाले स्कूलों को मजबूत कर रहे हैं। बच्चों को बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर, डिजिटल क्लास और पुस्तकालय जैसी सुविधाएं मुहैया कराई जा रही हैं।”

लेकिन सवाल यह है कि जब गरीब बच्चा स्कूल तक ही नहीं पहुंच पा रहा, तो ये सारी सुविधाएं उसके लिए किस काम की?

4. आंकड़े क्या कहते हैं?

2017 में सरकारी स्कूलों की संख्या – लगभग 1.59 लाख

2024 तक घटकर – लगभग 1.52 लाख (स्रोत: UDISE+)

2021-24 के बीच बंद हुए प्राथमिक स्कूलों की संख्या – 7,000 से अधिक

सर्वाधिक प्रभावित जिले – झांसी, चित्रकूट, सोनभद्र, चंदौली, ललितपुर

5. इमोशनल पहलू – शिक्षा सिर्फ किताब नहीं, उम्मीद होती है जब एक मां अपनी बेटी के लिए सुबह 5 बजे उठकर रोटी बांधती है ताकि वो 3 किलोमीटर दूर स्कूल जा सके, तब वो सिर्फ पढ़ाई नहीं, बेटी का भविष्य गढ़ रही होती है। लेकिन जब स्कूल का दरवाज़ा ही बंद मिले, तो उसकी उम्मीद भी दम तोड़ देती है।

6. समाधान क्या हो सकता है?

शिक्षा पर बजट बढ़ाना: UP का शिक्षा बजट अब भी GDP के 3% के आस-पास है, जबकि UNESCO 6% की सिफारिश करता है।

स्थानीय स्कूलों को बचाना: हर गांव में एक छोटा बेसिक स्कूल जरूरी है, विशेषकर बालिकाओं के लिए।

ट्रांसपोर्ट सुविधा देना: यदि मर्जर आवश्यक है, तो बच्चों के लिए मुफ्त बस सेवा उपलब्ध कराना जरूरी है।

सरकार की नीति चाहे कितनी भी तकनीकी रूप से सही क्यों न हो, लेकिन उसकी मार गरीब जनता पर सबसे पहले और सबसे ज्यादा पड़ती है। स्कूल बंद करने से न सिर्फ शिक्षा प्रभावित हो रही है, बल्कि गांव की सामाजिक प्रगति भी थम रही है।

अगर यूपी को वाकई ‘सशक्त प्रदेश’ बनाना है, तो शिक्षा की नींव को मजबूत करना होगा – स्कूल बंद करके नहीं, उन्हें संवार कर।

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