जेब से खाली इंसान कहीं भी बिकने को तैयार हो जातें हैं? बड़ी अजीब बात है ना। पता है हम ऐसे क्यों हैं? क्यूंकि हम आज तक ये समझ ही नहीं पाए की हम जरूरतों के कितने अधीन हो चुके हैं। हमें ऐसा लगता है एक वक्त आएगा जो सब बदल कर रख देगा मगर शायद ये वक्त आते आते हम बुढ़ापे की दहलीज पे जा चुके होते हैं।
कितना मुश्किल है ख़ाली जेब ज़िन्दगी को जीना?
कितना मुश्किल है ना एक ज़िन्दगी को जिंदगीभर जीना। बचपन, लड़कपन, अधेड़पन, जवानी, रवानी फ़िर बुढ़ापा और फ़िर लड़खड़ाना और फ़िर ज़िन्दगी की कहानी एक कहानी बन कर रह जाना। अब सब ख़त्म।
सबको पता है हम गरीब पैदा होते है और फ़िर यही गरीबी एक दिन हमारी मौत का कारण बन जाता है। ये गरीबी में जीने की आदत हमें बचपन से पता नहीं क्या क्या उपदेश और प्रवचन सुनने की आदत डाल जाती है। बेईमानी की दाल से कहीं अच्छा ईमानदारी की भूख है। फ़िर चाहे हमें भूखे मर क्यों ना जाना पड़े., मगर कभी आपने सोचा ये बेईमानी कौन कर रहा है,क्या सच में जानने की जरुरत है की आखिर किसी की बेईमानी के कारण हमारी ईमानदारी नष्ट होते जा रही है।

हम जेब से खाली हैं, ओर बेईमानी और ईमानदारी की क्या बात बात करें?
आइए आज बात करते है BPSC 70 वी एग्जाम पे। यानी बेईमानी और ईमानदारी की बात – कौन बेईमान? कौन ईमानदार? क्या वो अभ्यर्थी ईमानदार है जो अपने साथ हुए हक़मारी के लिए आवाज़ उठा रहे है या फ़िर वो बेईमान जो ईमानदारी से बेईमानी करते जा रहे थे? मगर शायद वक्त की नजाकत ने ईमानदारी से बेईमानी करने में थोड़ी सी चूक ने सब बेईमानी की पोटली खोल दिया है.
दरअसल दोनों ही बेईमानी के शिकार है – एक अभ्यर्थी दूजा सरकार। अभ्यर्थी इसलिए क्यूंकि इन्हें सिवाए अपने दर्द के किसी और का दर्द समझ नहीं आता, आज भी कई ऐसे लोग है जो बन्द कमरों में पढ़ते ही जा रहे है उन्हें फर्क नहीं पड़ता कौन सडक पे आंदोलन कर रहा है कौन नहीं, वो सिर्फ ईमानदारी से पढ़ते ही जा रहे है जबकि वो बेईमानी कर रहें है उन्हें नहीं समझ है की ईमानदारी की पढ़ाई से कहीं ज्यादा बेईमानी का परचा लिक उनपे भारी पड़ेगा।
सरकारे आएँगी, जाएंगी मगर सरकारी दफ़्तरों में बैठे लोग वही होंगे बस स्थानांतरण यानि जगहें बदली की जाएगी। बेईमानी जस के तस ईमानदारी सड़कों पे फ़िर जलील होते नजर आएगी। ये चुप्पी एक दिन हमसबपे बहुत भारी पड़ने वाला है।
सरकार है क्या?
सरकार क्या है?, सरकार वो जो ये तय करता है की आपकी हमारी ज़िन्दगी कैसे बीतेगी सुखमय या दुखमय? हमारी शिक्षा कैसी होंगी अच्छी या ख़राब? हमारा उपचार कैसा होगा अच्छा या बुरा? हम कमाएंगे क्या दर दर की ठोकरें या पैसा? हम खाएंगे क्या ताना या खाना? हम पहनेंगे क्या कपड़ा या चोला? हम रहेंगे कैसे छत के तले या आसमान तले? हम चलेंगे कहाँ सड़कों पे या पगडंडियों पे? यही शायद सरकार है जो संसद में बैठकर तय करती है।
हमें यही ईमानदार और बेईमान बनना होता है क्यूंकि यहीँ से जन्म होती है एक ईमानदारी और बेईमानी की कहानी की । मगर हम जेब से खाली इंसान यही हार जातें है, और फ़िर एक दिन बिक जाते है। कुछ बिक जातें है नोटों पे कुछ धर्म जाती और जमातों पे। कर देते है हम खुद से खुद की बेईमानी और फ़िर बाद में ईमानदार होने का खूब ढ़ोल पीटते है।
क्या नेता नहीं चाहते है लोग पढ़े लिखें?
नेताओं का क्या है, ये तो चाहते है की लोग अनपढ़ जाहिल रहे ताकि ये आसानी से हमें चंद सिक्कों की खनक से हमसे हमारी ईमानदारी खरीद कर खुद बेईमानीं कर सके. ईमानदार बनिए और सभी छात्र तब तक आंदोलन करिये ज़ब तक हर जगह से बेईमानी भाग ना जाए, अब वक्त जागने का हो चला है पहचानिए अपने संविधान की ताकत को, आपके एक मत आपके अपने बच्चों का आपका भविष्य संरक्षित कर सकता है । अपने वक्त का इंतजार मत करिये। सड़के ज़ब सूनी पड़ जाती है तो संसद आवारा हो जाता है।
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