इन दिनों बिहार की सियासत में एक अजीब सी बहस छिड़ी हुई है — “14% वाला मुख्यमंत्री बनेगा तो 18% वाला क्या करेगा?”
यह सवाल सोशल मीडिया से लेकर सियासी गलियारों तक खूब तैर रहा है। लेकिन यह 18% हैं कौन?

क्या ये सिर्फ मुस्लिम समुदाय है? या फिर इसके भीतर शेख, अंसारी (मोमिन), सुरजापुरी, मंसूरी (धुनिया), राइन, शेरशाहबादी, पठान, फकीर, धोबी (मुस्लिम), दर्जी (मुस्लिम), सैयद समेत अनेक उपसमुदाय शामिल हैं?
दरअसल, ये सभी मिलकर 18% हैं, जबकि 14% अकेले यादव समुदाय की जनसंख्या है।

बिहार में वोटों का गणित या समाज को बांटने की राजनीति?

विशेषज्ञों का मानना है कि भाजपा जिस तरह मुस्लिम समाज को उप-समुदायों में बांटने की कोशिश दिखाती है, उसका सीधा राजनीतिक लाभ हिंदू–मुस्लिम ध्रुवीकरण के रूप में मिलता है।
रणनीति स्पष्ट है— भावनात्मक मुद्दे उछालो, विकास के सवाल पीछे धकेलो और बहुसंख्यक वोट एकजुट करो।

ऐसे में बिहार की सियासत का असली सवाल यह है कि क्या समाज को बांटकर राजनीति की जाएगी या मुद्दों पर चुनाव लड़े जाएंगे?

Waqf बिल का उदाहरण और राजनीतिक स्टैंड

जब वक्फ बिल संसद में आया, तब INDIA गठबंधन के दलों ने उसके खिलाफ वोट किया।
प्रश्न उठता है— क्या वे सभी सांसद मुस्लिम थे?
नहीं।
यह इस बात का संकेत है कि मुस्लिम, दलित, पिछड़े और गरीबों के मुद्दों पर लड़ाई धर्म नहीं, विचारधारा और सिद्धांत तय करते हैं।

लड़ाई विचारों की है, धर्म की नहीं

आज असली संघर्ष है —
• बेरोजगारी बनाम नफरत
• विकास बनाम ध्रुवीकरण
• शिक्षा, स्वास्थ्य और कानून व्यवस्था बनाम धार्मिक प्रोपेगेंडा

धर्म और जाति की राजनीति ने समाज को कमजोर किया है। हिंदू–मुस्लिम बहस में असली मुद्दे पीछे छूट जाते हैं, और यही राजनीतिक दलों की जीत बन जाती है— जनता की नहीं।

मानवता की सीख: पड़ोसी भूखा हो तो धर्म मत देखिए

इस्लाम कहता है— “अगर आपका पड़ोसी भूखा है, तो आपका खाना जायज़ नहीं।”
कहीं यह नहीं लिखा कि पड़ोसी सिर्फ मुस्लिम ही होना चाहिए।
मानवता का संदेश यही है कि भूखे, गरीब और असहाय की मदद की जाए— चाहे वह किसी भी धर्म या जाति का हो।

बिहार

जैसे:
• अनाज किसान उगाता है— न वह मुस्लिम होता है, न हिंदू, वह सिर्फ किसान होता है।
• हवा, पानी और प्रकृति किसी की जाति नहीं पूछते।

वोट आपका हक नहीं, जिम्मेदारी भी है

समाज को बांटने वाली सियासत को रोकने के लिए जागरूकता जरूरी है।
बिना मुद्दों को समझे वोट देना यानी अपने और आने वाली पीढ़ियों का भविष्य दांव पर लगाना।

रोटी अगर तवे पर बार-बार न पलटी जाए तो जल जाती है। ठीक वैसे ही, सत्ता भी हर पांच साल में बदलनी चाहिए वरना सरकार खुद को मालिक समझने लगती है।

अंत में

हम सब एक हैं।
जाति–धर्म के बहकावे में पड़कर अपना कीमती वोट बर्बाद न करें।
एक बेहतर समाज व मजबूत लोकतंत्र के लिए सही निर्णय लें— और मतदान अवश्य करें।

इनपुट: टोनी आलम

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