राजनीति का उद्देश्य समाज की भलाई और जनकल्याण होना चाहिए, लेकिन समय के साथ इसके स्वरूप में व्यापक परिवर्तन देखने को आया है। भारतीय राजनीति, जो कभी नैतिकता और आदर्शों की मिसाल मानी जाती थी, अब धीरे-धीरे स्वार्थ, व्यक्तिगत हितों और सत्ता की दौड़ में उलझती जा रही और इसका स्वरूप भी है।
राजनीति का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
आज़ादी से पहले की राजनीति और आज की राजनीति में ज़मीन-आसमान का फर्क है। महात्मा गांधी, सरदार पटेल, जवाहरलाल नेहरू , भीमराव अंबेडकर जैसे नेताओं ने राजनीति को समाज सेवा का माध्यम बनाया। उनका उद्देश्य सत्ता नहीं, बल्कि स्वतंत्रता, समानता और विकास था। राजनीति उनके लिए एक मिशन थी, न कि प्रोफेशन।
लेकिन आज, राजनीति का मुख्य उद्देश्य सत्ता हासिल करना बन चुका है। अब नेताओं के भाषणों में समाज सुधार से ज्यादा अपने विपक्षी दलों की आलोचना ही सुनाई देती है।
बदलाव के कारण और स्वरूप
व्यक्तिगत स्वार्थ और भ्रष्टाचार:
राजनीति में पैसा और ताकत का इतना हस्तक्षेप हो गया है कि यह जनसेवा से दूर होकर व्यक्तिगत लाभ का साधन ओर स्वरूप बन गई है। भ्रष्टाचार हर स्तर पर हावी है, जिससे आम जनता का विश्वास दिन पर दिन कम हो रहा है।
मीडिया और सोशल मीडिया का बढ़ता प्रभाव:
पहले नेताओं की छवि उनके काम से बनती थी। अब सोशल मीडिया पर विज्ञापन, ट्रोल आर्मी और झूठी खबरें राजनीतिक माहौल को खूब संचालित कर रही हैं। इसमें भावनाओं से खेलना और जनता को बांटने का काम बहुत बढ़ गया है।
आदर्शों की कमी:
आज राजनीति में आदर्श और नैतिकता के लिए जगह कम या यूं बोले कि ख़त्म ही हो गई है। जहां पहले नेतागण आदर्श प्रस्तुत करते थे, अब उनकी प्राथमिकता जनता की समस्याओं के बजाय अपनी सीट पक्की करना है।
जाति और धर्म का राजनीतिकरण से बदला स्वरूप:
जातिवाद और धर्म आधारित राजनीति ने समाज को पूरी तरह से बांट दिया है। चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दल धार्मिक और जातिगत भावनाओं को भड़काने से बिलकुल भी पीछे नहीं हटते।
राजनीति का वर्तमान स्वरूप
आज की राजनीति मुख्य रूप से तीन प्रमुख स्तंभों पर आधारित दिखती है:
सत्ता की लालसा:
हर नेता और हर पार्टी केवल सत्ता में बने रहने के लिए रणनीतियां बनाती हैं, चाहे उसके लिए किसी भी स्तर पर समझौता करना पड़े।
जनता से जुड़ने का दिखावा:
नेताओं का जनता के प्रति जुड़ाव केवल चुनावी मौसम में ही दिखता है। वादों की बाढ़ आ जाती है, लेकिन जीतने के बाद वही जनता हाशिए पर चली जाती और फिर जनता को कोई पूछने वाला नहीं होता है।
युवाओं का राजनीति में योगदान:
युवाओं को राजनीति में शामिल करने की बात तो होती है, लेकिन उनके लिए कोई ऐसा मंच तैयार नहीं किया जाता। युवा वर्ग या तो राजनीति से दूर हो रहा है या फिर इसे गलत दिशा में देख रहा है।
भावनात्मक दृष्टिकोण: क्या खो रहे हैं हम?
राजनीति में बदलाव केवल नेताओं की समस्या नहीं है; यह हमारे समाज के हर व्यक्ति से जुड़ा है। हम हर चुनाव में वोट डालते हैं, लेकिन क्या हमने कभी सोचा है कि हम किसे चुन रहे हैं?
जब गांवों में बिजली नहीं होती, बच्चे शिक्षा से वंचित होते हैं, और किसान आत्महत्या करते हैं, तब कहीं न कहीं हमारी चुप्पी जिम्मेदार होती है।
एक समय था जब राजनीति समाज के हर वर्ग की आवाज़ थी। आज यह एक छोटे से समूह की ताकत का साधन बनकर रह गई है। क्या यह हमारे लोकतंत्र का अपमान नहीं है?
बदलाव की दिशा और स्वरूप
जागरूक मतदाता:
जनता को अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूक होना ही होगा। सही नेता को चुनना और उसके कार्यों का मूल्यांकन करना बेहद ही जरूरी है।
युवाओं की भागीदारी:
युवाओं को राजनीति में ईमानदारी से कदम रखना होगा। उनके विचार और ऊर्जा देश को सही दिशा में ले जा सकते हैं।
शिक्षा और नैतिकता:
राजनीति में नैतिकता का समावेश शिक्षा और जागरूकता के माध्यम से ही हो सकता है।
सकारात्मक मीडिया:
मीडिया को अपनी असली जिम्मेदारी समझनी होगी और समाज को सही जानकारी प्रदान करनी होगी क्योंकि मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है लेकिन आज की मीडिया अपना मूल सरुप खो चुकी है लेकिन अब उसे सकारात्मक पहल करनी ही होगी।
निष्कर्ष
राजनीति का बदलता स्वरूप हमारे समाज के लिए एक चुनौती है। यह हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हमने लोकतंत्र का सही इस्तेमाल किया है? राजनीति में सुधार केवल नेताओं से नहीं, बल्कि जनता से भी शुरू हो सकता है।
जब हर नागरिक अपने अधिकारों और जिम्मेदारियों को समझेगा, तभी राजनीति फिर से समाज सेवा का माध्यम बन पाएगी। हम सबको मिलकर एक ऐसे राजनीतिक ढांचे का निर्माण करना होगा जो सच में “जनता के लिए, जनता द्वारा, और जनता का” हो।