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आज देश में आम आदमी की सबसे बड़ी समस्याएं क्या हैं? अगर हम सड़क पर किसी भी व्यक्ति से यह सवाल पूछें, तो ज़्यादातर लोग दो मुद्दों पर बात करेंगे— बढ़ती हुई महंगाई और बेरोजगारी। रोज़मर्रा की ज़रूरतों की चीज़ें दिन पर दिन महंगी होती जा रही हैं, लोगों का आमदनी बढ़ नहीं रही और नौकरी के मौके कम होते जा रहे हैं, लेकिन जब हम टीवी खोलते हैं, तो इन मुद्दों पर गहरी चर्चा शायद ही देखने को मिलती है। आखिर क्यों प्राइम टाइम मीडिया इन गंभीर समस्याओं पर खामोश है?

1. देश में महंगाई: आम जनता की कमर टूटी, मगर मीडिया चुप क्यों?

महंगाई अब सिर्फ एक आर्थिक मुद्दा नहीं, बल्कि आम लोगों के जीवन पर सीधा असर डालने वाला संकट बन चुकी है।

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खाने-पीने की चीजें महंगी: सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, खाद्य वस्तुओं की कीमतों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। सब्जियां, दालें, दूध और तेल जैसे जरूरी सामान आम आदमी की पहुंच से बाहर होते जा रहे हैं।

ईंधन की कीमतें आसमान पर: पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ते ही हर चीज़ की कीमत बढ़ जाती है, क्योंकि ट्रांसपोर्ट महंगा हो जाता है। बावजूद इसके, न्यूज़ चैनलों पर इस पर बहस न के बराबर होती है।

रसोई गैस की मार: रसोई गैस के दामों में बढ़ोतरी से गृहिणियों की मुश्किलें बढ़ गई हैं। लेकिन इन मुद्दों की जगह मीडिया में धार्मिक विवाद, बॉलीवुड गॉसिप और राजनीतिक बयानबाज़ी ज्यादा देखने को मिलती है।

2. देश में बेरोजगारी: नौकरियां नहीं, लेकिन बहस भी नहीं!

बेरोजगारी भी एक विकराल समस्या बन चुकी है, लेकिन इसे लेकर मीडिया में उतनी चर्चा नहीं होती जितनी होनी चाहिए।

देश में युवाओं को नौकरी नहीं मिल रही: सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में बेरोजगारी दर कई बार 8% से ऊपर चली जाती है। कई पढ़े-लिखे युवा या तो बेरोजगार हैं या अपनी योग्यता से कम वेतन पर काम करने को मजबूर हैं।

सरकारी नौकरियों में कटौती: पहले की तुलना में सरकारी नौकरियों की संख्या कम हो रही है, और जो भर्तियां निकलती भी हैं, वे अक्सर सालों तक लंबित पड़ी रहती हैं।

निजी क्षेत्र में अनिश्चितता: कई कंपनियां छंटनी कर रही हैं, नई भर्तियां धीमी हो गई हैं, लेकिन मीडिया में इसकी गंभीर रिपोर्टिंग नहीं हो रही।

3. देश की मीडिया की खामोशी के पीछे के कारण

अब सवाल उठता है कि इतनी गंभीर समस्याओं पर मीडिया ध्यान क्यों नहीं देता? इसके पीछे कुछ मुख्य अहम कारण हो सकते हैं—

(i) सरकार से करीबी संबंध
ज़्यादातर बड़े न्यूज़ चैनल्स के मालिक बड़े उद्योगपति हैं, जिनके सरकार से बहुत करीबी रिश्ते होते हैं। वे नहीं चाहते कि सरकार की नीतियों की आलोचना हो, जिससे उनकी कंपनियों को कोई नुकसान हो। क्योंकि सरकार की नीतियों की अगर आलोचना करेंगे तो उन्हें सरकार की तरफ से विज्ञापन ओर उनके बिजनेस को नुकसान हो सकता है।

(ii) टीआरपी का खेल
मीडिया हाउस को मुनाफा कमाना होता है, और उन्हें लगता है कि धार्मिक विवाद, बॉलीवुड स्कैंडल, और सनसनीखेज खबरें ज्यादा दर्शक खींचती हैं। महंगाई और बेरोजगारी पर गंभीर चर्चा करने से उनकी टीआरपी बढ़ती नहीं, इसलिए वे इन मुद्दों से बचते हैं। और क्योंकि बेरोज़गारी और महंगाई पर अगर बात करेंगे तो उन्हें सरकार के नीतियों पर बात करनी होगी इस लिए मीडिया धर्म, और सरकार की महिमामंडन करने लगते है।

(iii) राजनीतिक दबाव
सरकार और सत्ता में बैठे लोग मीडिया पर दबाव बनाते हैं कि वे नकारात्मक खबरें न दिखाएं। कई पत्रकारों और चैनलों को सरकारी विज्ञापनों से मोटी कमाई होती है, जिससे वे सरकार के खिलाफ आवाज़ उठाने से बचते हैं।

4. क्या देश में जनता की आवाज़ दबाई जा सकती है?

हालांकि मुख्यधारा का मीडिया चुप्पी साधे हुए है, लेकिन सोशल मीडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता के माध्यम से लोग अपनी बात रख रहे हैं। यूट्यूब, पूर्व में ट्विटर अभी एक्स, और स्वतंत्र न्यूज़ पोर्टल्स पर इन मुद्दों पर चर्चा हो रही है।

निष्कर्ष

देश में महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दे आम आदमी की ज़िंदगी को बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं, लेकिन प्राइम टाइम मीडिया इनसे बचने की कोशिश करता है। सरकार और बड़े उद्योगपतियों के प्रभाव, टीआरपी की होड़, और राजनीतिक दबाव इसकी बड़ी वजहें हो सकती हैं। लेकिन सच को दबाया नहीं जा सकता। जब तक जनता खुद सवाल नहीं पूछेगी, तब तक बदलाव नहीं आएगा। इसलिए ज़रूरी है कि हम अपने हक़ की आवाज़ उठाएं और असली मुद्दों पर ध्यान दें।

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