मधुबनी चित्रकला का परिचय
मधुबनी चित्रकला एक विशेष प्रकार की चित्रकला है,
मधुबनी पेंटिंग यानी मिथिला पेंटिंग की शुरुआत सातवीं–आठवीं सदी में हुई। तिब्बत के थंका आर्ट से प्रभावित चित्रकारी की यह लोककला विकसित हुई। फिर 13वीं सदी में पत्थरों पर मिथिला पेंटिंग होने लगी।
जो बिहार के दरभंगा, पूर्णिया, सहरसा, मुजफ्फरपुर, मधुबनी और नेपाल के कुछ क्षेत्रों में प्रमुख रूप से प्रचलित है। इस कला का आदि में रंगोली के रूप में उपयोग होता था, लेकिन समय के साथ यह आधुनिक रूपों में बदल गया और अब कपड़ों, दीवारों और कागज पर भी बनता है।
मधुबनी चित्रकला की विशेषताएँ
मधुबनी चित्रकला को बिहार की विश्वविख्यात चित्रकला शैलियों में से एक माना जाता है और यह मिथिला की एक फोक पेंटिंग का हिस्सा है। इसमें दो प्रमुख प्रकार के चित्र होते हैं – भित्ति चित्र और अरिपन, जिनमें मिथिलांचल की संस्कृति और जीवन की विविधताएँ दिखती हैं।
लिंग परित्याग और मिथिला चित्रकला
मधुबनी चित्रकला की शुरुआत मिथिला के स्त्रीशक्ति द्वारा की गई थी, लेकिन इसकी प्रसिद्धि में पुरुषों का भी महत्वपूर्ण योगदान है। यह चित्रकला अधिकांशतः प्राचीन महाकाव्यों, प्राकृतिक दृश्यों, देवताओं, पुरुषों और सहयोग के साथ जुड़ी होती है।
चित्रकला में सांस्कृतिक दृष्टिकोण
मधुबनी चित्रकला में सूर्य, चंद्रमा, तुलसी जैसे प्राकृतिक वस्तुएं और शाही अदालत के दृश्य, सामाजिक कार्यक्रमों के साथ संबंधित विषयों को व्यापक रूप से चित्रित किया जाता है। यह चित्रकला मिथिला की सांस्कृतिक धरोहर को दर्शाती है और समाजिक एवं धार्मिक घटनाओं का आदान–प्रदान करती है।
मधुबनी चित्रकला की स्थानीयता और प्रसिद्धि
आजकल, मधुबनी चित्रकला दीवारों, कैनवास और हस्तनिर्मित कागज पर बनती है और इसकी सादगी और सजीवता इसे अनूठा बनाती है। इसकी विशेषता इसके अद्वितीय रंग और रूप में है, जिसके कारण यह दुनियाभर में मशहूर है।
इस प्रकार, मधुबनी चित्रकला एक अनूठे और सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा है, जिसका महत्व चित्रकारी की सादगी और जीवंतता में है।