बिहार की राजनीति में चिराग पासवान एक ऐसा नाम बन चुके हैं, जो अपने पिता रामविलास पासवान की तरह हर बार सियासत की रोशनी में अपनी मौजूदगी दर्ज कराते हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में जब सभी को उम्मीद थी कि नीतीश कुमार की नाव आराम से किनारा छू लेगी, तभी चिराग ने अपनी एक अलग राह पकड़ ली थी — और उस रोशनी ने नीतीश की चमक को फीका कर दिया था।
बिहार में भाजपा से दूरी या दबाव की रणनीति?
अब फिर वही कहानी दोहराने की तैयारी दिख रही है। सीटों के बंटवारे को लेकर चिराग इस बार भी अपने तेवर में हैं। भाजपा के मौजूदा ऑफर से वे खुश नहीं हैं — उनका फोन नेताओं के लिए “आउट ऑफ रीच” बताया जा रहा है, लेकिन राजनीति में “फोन का आउट ऑफ रीच” होना अक्सर एक संदेश होता है — कि नेता व्यस्त नहीं, बल्कि बेहद सोच में डूबा हुआ है।
जब अमित शाह को करनी पड़ी एंट्री
भाजपा के केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान और प्रदेश प्रभारी विनोद तावड़े चिराग से संपर्क साधने में नाकाम रहे, तब अमित शाह को मैदान में उतरना पड़ा। शाह ने अपनी खास राजनीतिक शैली में संदेश भेजा — और कुछ पल को चिराग की लौ धीमी जरूर हुई, पर बुझी नहीं। आखिर, वो रामविलास पासवान का बेटा है — जो झुकने से पहले सोचता है, लेकिन टूटता नहीं।

चिराग की सीट मांग से बढ़ी भाजपा की चिंता
सूत्र बताते हैं कि शाह के हस्तक्षेप के बाद बातचीत शुरू हुई है, मगर अभी भी बात सीटों पर अटकी है। चिराग करीब 40 सीटों की मांग पर डटे हैं — खासकर गोविंदगंज, ब्रह्मपुर, अतरी, महुआ और सिमरी बख्तियारपुर जैसी सीटों पर। ये वही जगहें हैं जहां से उनका राजनीतिक वजूद मजबूत होता है। लेकिन तीन सीटों पर जदयू का दावा भी टकरा रहा है — और बिहार की राजनीति में यह टकराव अक्सर लंबे समय तक असर छोड़ता है।
2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में जब चिराग ने अलग रास्ता चुना था, तब उन्होंने नीतीश के कई उम्मीदवारों का खेल बिगाड़ दिया था। भाजपा अब वैसी गलती नहीं दोहराना चाहती। दलित और युवा वोट बैंक में चिराग की पकड़ को अनदेखा करना भाजपा (BJP ) के लिए जोखिम भरा होगा। शायद इसीलिए अमित शाह ने साफ कहा — “2020 जैसी गलती दोबारा नहीं होनी चाहिए।”
लेकिन इस बार कहानी सिर्फ सीटों तक सीमित नहीं है। पटना की गलियों में पहले से ही पोस्टर लगे हैं — “अगला मुख्यमंत्री — चिराग पासवान।” यह सपना सिर्फ पोस्टर पर नहीं, बल्कि उनके दिल में भी है। वे अब सिर्फ नेता नहीं, एक विरासत के उत्तराधिकारी हैं — अपने पिता के अधूरे सपनों को पूरा करने की राह पर निकले एक बेटे।
छोटों की बड़ी मांग और बड़ा सियासी गणित
भाजपा और जदयू 101-102 सीटों पर आपसी समझ बना रहे हैं, लेकिन चिराग, जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा जैसे छोटे लेकिन प्रभावशाली दलों की महत्वाकांक्षा ने समीकरण को और जटिल बना दिया है।
उम्मीद और समझौते के बीच लंबा रास्ता
अमित शाह के संदेश के बाद उम्मीद की किरण जरूर दिखी है, मगर बिहार की राजनीति में “उम्मीद” और “समझौता” के बीच का रास्ता लंबा और कांटों भरा होता है।
फिलहाल, चिराग की आंखों में अपने पिता की विरासत का सपना है — और वही सपना उन्हें नीतीश की रोशनी में भी अपनी चमक बनाए रखने की ताकत देता है।
क्या इस बार चिराग पासवान सत्ता की सीढ़ियों पर कदम रख पाएंगे, या फिर फिर से सियासत का कोई बड़ा खेल उन्हें किनारे कर देगा — यह आने वाला चुनाव बताएगा।
पर इतना तय है — बिहार की सियासत में जब-जब चिराग जलते हैं, तो कई बड़े चेहरों की रोशनी मद्धिम पड़ जाती है।
