बिहार में बालू माफिया का आतंक कोई नई कहानी नहीं है, लेकिन बीते कुछ सालों में हालात इतने बिगड़ गए हैं कि गांव से लेकर कस्बे तक आम लोगों का जीना मुश्किल हो गया है। कहीं रात में मशीनें गरजती हैं, तो कहीं दिनदहाड़े अवैध खनन चलता है। प्रशासन की कार्रवाई भी कभी–कभी सिर्फ काग़ज़ों में दिखती है और असली दर्द लोगों के हिस्से में आता है।
जमुई जिले के गिद्धौर प्रखंड की पहचान कभी अपनी उपजाऊ मिट्टी, पारंपरिक खेती और शांत नदी-नालों के लिए होती थी। लेकिन पिछले कुछ सालों में यहां की तस्वीर तेजी से बदली है। नदियों से होने वाला अवैध बालू खनन अब सिर्फ कानून व्यवस्था की समस्या नहीं रह गई है, बल्कि किसानों की जिंदगी, फसलों और पूरे पर्यावरण पर सीधी चोट बन चुका है।
नदियां सूख रही हैं, खेत बंजर हो रहे हैं
गिद्धौर प्रखंड की कई छोटी नदियां और धाराएं कभी साल भर बहती थीं। किसान इन्हीं पर निर्भर होकर धान, गेहूं, मक्का, मूंग दाल और कई सब्जियों की खेती करते थे। लेकिन लगातार हो रहे अवैध खनन ने नदी के प्राकृतिक बहाव को बिगाड़ दिया है। कई जगह नदी की गहराई असामान्य रूप से बढ़ गई है। किनारों की मिट्टी कटकर बह रही है।
पानी का स्तर तेजी से गिर रहा है।
इसका सीधा असर किसानों की खेतिहर जमीन पर पड़ रहा है। जहां पहले पानी 15–20 फीट पर मिल जाता था, अब कई गांवों में बोरिंग 80–100 फीट पर भी पानी नहीं दे रहा। ऐसे में सिंचाई करना किसानों के लिए महंगी और मुश्किल दोनों हो गई है।
बरनार नदी के पानी से ही पटवन करने वाले गांव
बरनार नदी के पानी से ही प्रखंड के किनारे बसने वाले डुमरी, असरहुआ, मडरौ, केशोफरका, चुरहेत, सोनो, बलथर, केवाली सहित दर्जनों गांवों के पांच सौ एकड़ भूमि की सिंचाई होती थी। नदी से निकलने वाले आधा दर्जन पैइन से चरैया बहियार, बलथर बहियार, भडारी बहियार, कमरख बहियार, चुरहेत ,कन्हायडीह, सलोना, धोगठ, मोरा, बंधोरा, मांगोंबंदर, फरका, कागेश्वर, दिनारी, कोल्हुआ, निजुआरा, भंडररा, गंगरा, केशोफरका, मंडरो, अमेठीयाडीह, बहियार के दो एकड़ फसलों की प्यास बुझती थी, लेकिन इस बार नदी की धार नीचे व खेत उपर होने से परिस्थितियां बदल गई है। जो किसानों के लिए परेशानी का कारण बनेगा।

बालू माफिया का आतंक, किसान परेशान
गिद्धौर के कई इलाकों में रात के अंधेरे में ट्रैक्टर और हाइवा से अवैध बालू निकालना आम बात बन चुकी है। स्थानीय लोग कहते हैं कि शिकायत करने पर भी कार्रवाई कम और जोखिम ज्यादा होता है।
किसानों को लगता है कि उनकी जमीन, उनकी फसल और उनका भविष्य सरकार और प्रशासन की उदासीनता में दबकर रह गया है।
पारंपरिक खेती संकट में
कभी जमुई जिला और गिद्धौर प्रखंड की मिट्टी इतने पोषक तत्वों से भरपूर होती थी कि कम लागत में अच्छी उपज मिल जाती थी। लेकिन नदियों के सूखने और मिट्टी के कटाव के कारण खेतों की उर्वरता लगातार घट रही है।
धान के लिए आवश्यक पानी नहीं मिल पा रहा। सब्जियों की पैदावार आधी रह गई ।

मौसम के बदलाव से मिट्टी का तापमान भी बढ़ रहा।
किसान कहते हैं कि आज खेती करना घाटे का सौदा बन गया है। जिस जमीन पर पहले दो–तीन फसलें आसानी से ली जाती थीं, वहां अब एक फसल भी जोखिम भरा काम हो गया है।
पर्यावरण पर संकट: पेड़ कट रहे, हवा गरम हो रही
अवैध खनन के कारण नदी किनारे के पेड़ और पौधे भी खत्म हो रहे हैं। पेड़ कटने से गर्मी बढ़ रही है, मिट्टी सूख रही है और वर्षा भी बेहिसाब हो रही है।
गिद्धौर के कई गांवों में गर्मियों में तापमान 1–2 डिग्री तक बढ़ चुका है। यह बदलाव सीधा पर्यावरणीय असंतुलन की ओर संकेत करता है।
स्थानीय लोगों की मांग: कार्रवाई हो, नदियां बचें, खेती बचे
गांवों के किसान और आम लोग बार-बार मांग कर रहे हैं कि अवैध खनन पर तुरंत रोक लगे ,रेत घाटों की निगरानी बढ़े
पर्यावरण संरक्षण टीम सक्रिय की जाए
किसानों को सिंचाई के लिए वैकल्पिक सुविधाएं मिलें।
लोग कहते हैं कि अगर इसी तरह अवैध खनन चलता रहा, तो आने वाले 5–10 सालों में गिद्धौर की नदियां नक्शे से गायब हो जाएंगी और खेती पूरी तरह चौपट हो जाएगी।
बालू की कीमतें आसमान पर, गरीब की नींव अधर में
अवैध खनन के चलते बाजार में बालू की कीमतें अचानक आसमान छूने लगती हैं। जहां पहले 5–6 हजार में एक ट्रैक्टर बालू मिल जाता था, वहीं कई जगहों पर यह 10–12 हजार तक पहुंच गया है। गरीब आदमी जो सालों की कमाई जोड़कर एक छोटा सा मकान बनाने की सोचता है, उसकी योजनाएं बालू माफिया की मनमानी की वजह से धरी रह जाती हैं।
कई परिवार ईंट और छत तक का काम रोक कर बैठे हैं—क्योंकि बालू मिल ही नहीं रहा या इतना महंगा है कि जेब जवाब दे देती है। रात में नदी, दिन में डर – लोगों का दर्द
नदी किनारे बसे गांवों के लोग बताते हैं कि रात होते ही दर्जनों पोकलैंड मशीनें और ट्रैक्टर बिन रुके नदी की छाती चीरते रहते हैं। मशीनों का शोर, सड़क पर दौड़ते ओवरलोड ट्रक—ये सब मिलकर लोगों की नींद और चैन दोनों छीन लेते हैं।
सबसे ज्यादा भय बच्चों और महिलाओं को होता है।
कई गांवों में तो लोग कहते हैं—
“माफिया के सामने बोलना भी खतरे से खाली नहीं है।”
सरकार की मंशा सही हो तो बिहार में पलायन रुक सकता है
बिहार में पलायन कोई नई समस्या नहीं है। दशकों से यहां के मज़दूर रोज़गार की तलाश में दिल्ली, पंजाब, गुजरात और महाराष्ट्र की ट्रेनों में ठूंसे चले जाते हैं। सरकारें बदलती रहीं, नारे बदलते रहे, लेकिन ज़मीनी सच्चाई वही रही—काम नहीं, तो पलायन तय।
आज अगर सरकार सच में पलायन रोकना चाहती है, तो समाधान बहुत दूर नहीं है। वह समाधान बह रहा है—नदियों में बालू के रूप में।
मशीनों से बालू, बेरोज़गार होता बिहार
आज बिहार के लगभग सभी बालू घाटों पर बड़े-बड़े हाइवा ट्रक, पोकलेन और जेसीबी मशीनें दिन-रात चल रही हैं। एक मशीन वह काम कर देती है, जो पहले 100–150 मज़दूर मिलकर करते थे। नतीजा साफ है—
. ठेकेदार मुनाफ़े में
. सरकार को रॉयल्टी
. लेकिन मज़दूर बेरोज़गार
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक बिहार में करीब 90 लाख से अधिक प्रवासी मजदूर हैं, जिनमें बड़ी संख्या दिहाड़ी मज़दूरों की है। वहीं राज्य में हर साल 10 लाख से अधिक युवा काम की तलाश में बाहर जाते हैं।
मैन्युअल खनन: रोज़गार का बड़ा ज़रिया
अगर सरकार बालू खनन में भारी मशीनों पर प्रतिबंध लगाकर मैन्युअल (हाथ से) खुदाई को बढ़ावा दे, तो इसके कई फ़ायदे होंगे:
एक बालू घाट पर हज़ारों स्थानीय मजदूरों को रोज़गार मिलेगा
मजदूर अपने गांव-परिवार के साथ रहकर काम कर सकेंगे
पलायन में भारी कमी आएगी
मज़दूरों का पैसा बिहार में ही खर्च होगा, जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था मजबूत होगी, वही अनुमान के अनुसार, अगर राज्य के प्रमुख बालू घाटों पर मैन्युअल खनन लागू हो, तो लाखों मजदूरों को सालों तक स्थायी काम मिल सकता है।
पर्यावरण और सुरक्षा का भी सवाल
मशीनों से खनन केवल रोज़गार नहीं छीनता, बल्कि नदियों को भी खोखला करता है। इससे नदी का जलस्तर गिरता है
तटबंध कमजोर होते हैं बाढ़ और कटाव का खतरा बढ़ता है
जबकि नियंत्रित मैन्युअल खनन में नुकसान अपेक्षाकृत कम होता है। कई पर्यावरण विशेषज्ञ भी इस मॉडल का समर्थन करते हैं।
सवाल नीयत का है
सवाल यह नहीं है कि बिहार में रोज़गार कैसे पैदा होगा, सवाल यह है कि क्या सरकार चाहती है?
अगर सरकार सच में पलायन रोकना चाहती है, तो उसे
ठेकेदारों की सुविधा नहीं बल्कि मजदूरों की ज़िंदगी को प्राथमिकता देनी होगी। बिहार का मजदूर मेहनती है, उसे खैरात नहीं चाहिए—उसे सिर्फ़ अपने घर के पास काम चाहिए। जब नदियां बिहार की हैं, बालू बिहार की है, तो फिर रोज़गार बाहर क्यों?
अंत में
गिद्धौर प्रखंड का संकट सिर्फ पर्यावरण या खेती का नहीं है—यह यहां की आने वाली पीढ़ियों के भविष्य का सवाल है। नदियां खत्म होंगी तो गांव खत्म हो जाएंगे। बालू से भरती जेबें कुछ लोगों की हो सकती हैं, लेकिन इसकी कीमत पूरा इलाका चुकाएगा।
जब तक प्रशासन, सरकार और समाज मिलकर खड़े नहीं होंगे, न बालू माफिया रुकेगा, न नदियां बचेंगी, न किसान।
