बिहार में सियासत के चेहरे बदलते रहे, गठबंधन टूटते रहे, पर कुर्सी पर नीतीश कुमार 20 साल से लगभग लगातार मौजूद रहे। 2025 में भी वे फिर मुख्यमंत्री बने।
लेकिन अब—जब दिसंबर की कड़ाके की ठंड में लोग अलाव से जान बचा रहे हैं—सरकार को अचानक याद आया कि “अतिक्रमण” हटाना है।

यह सवाल सिर्फ राजनीति का नहीं, बल्कि बिहार के उन लाखों गरीब परिवारों की बेबसी और टूटे हुए सपनों का है, जिनके सिर पर रखा टिन का छोटा-सा छप्पर ही उनकी दुनिया था।

बीते 20 सालों से बिहार की कमान एनडीए और नीतीश कुमार के हाथ में रही है। 2025 में भी वे मुख्यमंत्री बने। इतने लंबे शासनकाल में अगर अतिक्रमण वाकई इतना बड़ा मुद्दा था, तो क्या सरकार को अब—ठंडी की इस कड़कड़ाती रातों में—ही गरीबों के आशियाने तोड़ना याद आया?

बिहार में ठंड की मार और घर उजड़ने का दर्द

बिहार की ठंडी कोई मामूली नहीं। दिसंबर-जनवरी में कई जिलों में तापमान 5–6 डिग्री तक गिर जाता है। ऐसे में जब किसी गरीब के सिर से छत छीन ली जाती है, तो वह सिर्फ घर नहीं टूटता—उनके हौसले, उनकी उम्मीदें, उनके बच्चों की आंखों के सपने भी मलबे में दब जाते हैं।

कई जगहों से तस्वीरें आईं—

कोई अपनी बूढ़ी माँ को कोने में सिमटाकर ठंड से बचाने की कोशिश कर रहा है,

कोई अपने जले-कपड़े, टूटे चारपाई और फटे गद्दे उठाकर रो रहा है,

बच्चों के स्कूल बैग, बर्तन, राशन—सब बिखरा पड़ा है।

बिहार
पटना में बुल्डोजर से घर गिराते हुए

सरकार कहती है अतिक्रमण हटाओ, लेकिन गरीब पूछ रहा है—

“जब 20 साल से सत्ता में थे, तब ये अतिक्रमण क्यों नहीं दिखा? ठंडी की रात में ही घर तोड़ना क्यों जरूरी था?”

किसका अतिक्रमण और किसकी सजा?

सच्चाई ये है कि गरीबों के आशियाने को अतिक्रमण बताना आसान है, क्योंकि वे विरोध नहीं कर सकते।
ना उनके पास वकील, ना ताकत, ना रसूख।
वहीं बड़े-बड़े मॉल, होटल, अवैध खनन, सरकारी जमीनों पर कब्जा—वो सब किसी को नहीं दिखता।
सरकारी नोटिस में गरीब का नाम पहले आता है, ताकतवर का नाम कभी आता ही नहीं।

गरीबों का दर्द यही है—
कानून सिर्फ उन पर टूटता है जो सबसे कमजोर हैं।

ठंड में उजड़ी ज़िंदगी, सवालों में घिरी सरकार

बिहार की जनता पूछ रही है—

20 साल में सरकार को ये अतिक्रमण क्यों नहीं दिखा?

क्या अतिक्रमण सिर्फ ठंड में ही हटाना जरूरी होता है?

क्या सरकार के पास पुनर्वास की व्यवस्था नहीं थी?

बिना वैकल्पिक व्यवस्था के घर तोड़ना मानवीय है?

सरकार कहती है—कानून का पालन हो रहा है, लेकिन जनता कहती है—मानवता का पालन कौन करेगा?

बिहार
गिद्धौर में अतिक्रमण हटाते हुए

गरीब की जिंदगी—बातों से नहीं चलती

किसी नेता के लिए एक झोपड़ी सिर्फ “अवैध निर्माण” हो सकती है, पर गरीब के लिए वही उसका घर है,
जहाँ उसकी बेटी का जन्म हुआ,
जहाँ बेटे ने पहली बार पांव रखा,
जहाँ बीमार माँ कई रातें काट चुकी है।

जब जेसीबी उस घर पर चढ़ती है तो

दीवार के साथ-साथ यादें टूटती हैं,

भविष्य बिखरता है,

और गरीब अपने ही राज्य में बेघर हो जाता है।

यह विकास नहीं, यह दर्द है

अगर सरकार सचमुच विकास चाहती है तो—

पहले गरीबों के लिए पुनर्वास योजना दे,

उनकी छत का इंतज़ाम करे,

बुजुर्गों और बच्चों को ठंड से बचाने की व्यवस्था करे,

और फिर अतिक्रमण हटाए।

लेकिन यहाँ तो उल्टा हो रहा है—
पहले घर तोड़ो,
फिर उनसे कहो “कानून का पालन करो”।
ये कौन-सा न्याय है?

बिहार की जनता की पुकार

बिहार के लोग आज यही कह रहे हैं—
“हम वोट देते हैं सुरक्षा, सम्मान और जीवन के लिए…
न कि अपने सिर से छत छिन जाने के लिए।”

गरीब की आह भारी होती है।
सरकारें बदल जाती हैं, इतिहास गवाही देता है—
लेकिन गरीब के आँसू और उसकी बद्दुआ कभी बेकार नहीं जातीं।

बिहार की ठंडी रातों में टूटी झोपड़ियों का धुआं सिर्फ लकड़ी का नहीं, टूटे भरोसे का धुआं है
जो सवाल बनकर सरकार के दरवाजे पर खड़ा है— “20 साल बाद भी हमें छत क्यों नहीं मिली?”

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