आज देश का मीडिया, खासकर प्राइम टाइम शो, जनता की आवाज़ बनने के बजाय सरकार की वाहवाही में मशगूल नज़र आता है। जिन चैनलों का काम था जनता के सवाल उठाना—बेरोज़गारी, महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य और भ्रष्टाचार पर चर्चा करना—वे अब सत्ता की चमक-दमक दिखाने में व्यस्त हैं।

जनता की उम्मीदें और मीडिया की हकीकत

लोग टीवी ऑन करते हैं इस उम्मीद में कि शायद कोई पत्रकार उनकी समस्याओं पर बात करेगा। लेकिन प्राइम टाइम की स्क्रीन पर जो दिखता है, वह है नेताओं की रैलियाँ, उनकी उपलब्धियों के गुणगान, और विपक्ष को नीचा दिखाने की कवायद।

बेरोज़गार युवा सोचता है कि उसका दर्द कोई उठाएगा, लेकिन स्क्रीन पर उसे दिखता है – सरकार ने दुनिया में भारत का नाम रोशन किया

महंगाई से जूझता परिवार उम्मीद करता है कि कोई उसके रसोईघर का हाल दिखाएगा, पर टीवी पर बहस होती है – सरकार की योजनाओं से जनता खुश

किसान उम्मीद करता है कि उसकी फसल और उसके दाम की चर्चा होगी, मगर चैनल पर जोर रहता है – “प्रधानमंत्री के भाषण की उपलब्धियां”।

मीडिया से क्यों टूटा भरोसा?

जनता समझ गई है कि यह मीडिया उसकी आवाज़ नहीं, बल्कि सत्ता का प्रवक्ता बन चुका है।

तथ्य छिपाना – जब बेरोजगारी 45 साल में सबसे ऊपर पहुंची, तब यह बहस गायब रही।

गंभीर मुद्दों से भागना – महंगाई पर डिबेट की जगह, चैनल “हिंदू-मुस्लिम”, “देशभक्ति”, “पाकिस्तान” जैसे विषय पर बहस दिखाने लगे।

सरकार का महिमामंडन – हर उपलब्धि को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है, लेकिन असफलताओं पर चुप्पी साध ली जाती है।

मीडिया

ताज़ा उदाहरण

हाल ही में बिहार में विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR ) को लेकर इंडिया गठबन्धन के सभी नेता राहुल गांधी और तेजस्वी यादव द्वारा वोट अधिकार यात्रा निकला और चुनाव आयोग द्वारा  किया जा रहा वोटर लिस्ट में धांधली पर राहुल गांधी ने साक्छ सामने रखा लेकिन इसकी चर्चा इसके ऊपर कोई भी मीडिया बात नहीं करती सिर्फ हैडलाइन के रूप में दिखाया जाता है । इतना बड़ा मुद्दा होने बाबजूद विपक्ष की आवाज को बुलंद करने की वजह उनकी ही आलोचना करती है, और प्राइम टाइम बहस में यह मुद्दा पूरी तरह गायब रहा।

बिहार और उत्तर प्रदेश में बाढ़ व बेरोजगारी की खबरें गांव-गांव में चर्चा का विषय बनीं, पर टीवी पर केंद्रित रहा – प्रधानमंत्री की विदेश यात्रा कितनी सफल रही

नौकरी की भर्ती परीक्षाओं में धांधली को लेकर लाखों युवा सड़क पर उतर गए, लेकिन मीडिया ने उनकी आवाज़ दबाकर सिर्फ राजनीति के गुणगान दिखाए।

जनता का रुख

अब जनता ने टीवी की ओर से नजरें फेर ली हैं।

गाँव-गाँव में लोग कहते हैं – “भाई, टीवी देखो मत, सब सरकार का भोंपू है”।

सोशल मीडिया और यूट्यूब चैनलों पर लोग सच्चाई ढूंढने लगे हैं।

मोबाइल पत्रकारिता और स्वतंत्र मीडिया को लोग ज्यादा भरोसे से सुनने लगे हैं।

नतीजा : प्राइम टाइम शो सिर्फ मनोरंजन कार्यक्रम

मीडिया, जो लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता था, अब जनता की नज़रों में अपनी साख खो रहा है। लोगों का भरोसा टूट चुका है। अगर यह हाल रहा तो आने वाले समय में प्राइम टाइम शो सिर्फ मनोरंजन कार्यक्रम बनकर रह जाएंगे, जिन्हें जनता गंभीरता से कभी नहीं लेगी।

असल सवाल अब यह है कि क्या मीडिया फिर से जनता की आवाज़ बनेगा या हमेशा के लिए सत्ता का झुनझुना बजाता रहेगा?

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