बिहार में पटना से लेकर पंचायत तक – नेता जी दिखने लगे हैं! जो नेता पिछले 4 साल तक लापता थे, अब अचानक गांव-गांव घूम रहे हैं। खेत की मेड़ पर हाथ जोड़ते, गलियों में बुजुर्गों से आशीर्वाद लेते और युवाओं से बड़ी-बड़ी बातें करते हुए। चाय की दुकान से लेकर चौपाल तक एक ही बात – “नेता जी फिर से आए हैं… चुनाव आ गया है!”

क्या आपको भी ऐसा लग रहा है कि नेता जी को सिर्फ वोट मांगने के वक्त ही जनता की याद आती है?

बिहार की सच्चाई – जमीनी हकीकत : बिहार के गांवों में अब भी बिजली रोज गुल रहती है, पानी के लिए महिलाओं को किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है, स्कूल में शिक्षक नहीं, अस्पताल में डॉक्टर नहीं, सड़कें हैं तो गड्ढों से भरी हुई।

लेकिन नेता जी कहते हैं – “हमने विकास किया है!”

बिहार

पटना से गांव में अगर विकास हुआ है, तो बेरोजगारी क्यों सिर चढ़कर बोल रही है?

बिहार में बेरोजगारी दर राष्ट्रीय औसत से कहीं ऊपर है। पढ़े-लिखे युवाओं की फौज आज भी दिल्ली, पंजाब, गुजरात या विदेशों में मज़दूरी कर रही है।

अगर शिक्षा सुधरी है, तो हर साल लाखों छात्र बाहर क्यों पढ़ने जाते हैं?

बिहार के सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में आज भी संसाधनों की भारी कमी है। टीचर की भर्ती वर्षों से अटकी है।

अगर कानून-व्यवस्था ठीक है, तो अपराधियों का मनोबल इतना ऊंचा क्यों है?

2024 में ही 11,000 से ज्यादा संगीन अपराध दर्ज किए गए – हत्या, बलात्कार, लूट और अपहरण आम हो चुके हैं।

चुनाव आते ही क्यों दिखते हैं नेता जी?
चार साल जनता को भुला देने वाले नेता चुनाव के आते ही क्यों समाजसेवक बन जाते हैं?
– क्योंकि नेता जानते हैं कि आम जनता की याददाश्त कमजोर है।
– क्योंकि उन्हें पता है कि जात-पात, धर्म और दारू की बोतलें चुनाव जीतने का शॉर्टकट हैं।

वो आएंगे, हाथ जोड़ेंगे, जलेबी बांटेंगे, झूठे वादों के पोस्टर लगवाएंगे –
और फिर पांच साल के लिए मोबाइल बंद, दरवाज़े बंद और ज़ुबान बंद कर देंगे।

बिहार को बदलना है, तो याद रखिए –

नेता को सिर्फ पार्टी से नहीं, पारदर्शिता और ज़िम्मेदारी से आंका जाना चाहिए।
चुनाव में सिर्फ वही सवाल पूछिए जो पिछले पांच साल में आप झेलते रहे –

रोजगार मिला?

विकास दिखा?

आपके बच्चों को पढ़ाई मिली?

आपके घर तक सड़क पहुंची?

आखिर में – एक दर्द भरी सच्चाई

बिहार के नेता नेता नहीं, अवसरवादी व्यापारी बन गए हैं।
जो जनता की गरीबी, मजबूरी और भावनाओं का सौदा करते हैं।
अब फैसला जनता के हाथ में है –
इमोशन में वोट देना है या ईमानदारी से सोचकर?

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