जब देश में आम आदमी मामूली आरोप में भी वर्षों जेल की हवा खा लेता है, वहीं एक ऐसे व्यक्ति पर जो बलात्कार, हत्या और कई गंभीर आरोपों में दोषी पाया गया हो – उस पर सरकार और न्यायपालिका का रवैया अगर ‘नरम’ नजर आए, तो सवाल उठना लाज़मी है। बात हो रही है डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम की। आखिर क्यों सरकार और अदालत बार-बार उसे पैरोल और रिहाई का “तोहफा” देती रही है? क्या ये “सजा” है या “मजा”?

तथ्य क्या कहते हैं?

दोषी ठहराया जा चुका है: गुरमीत राम रहीम को 2017 में दो साध्वियों के बलात्कार के आरोप में दोषी करार दिया गया और उसे 20 साल की सजा सुनाई गई। इसके बाद पत्रकार रामचंद्र छत्रपति की हत्या और एक अनुयायी को नपुंसक बनाने के मामलों में भी वह दोषी पाया गया।

बार-बार पैरोल: पिछले दो साल में उसे 5 बार पैरोल और फरवरी 2024 में एक बार 20 दिन की फरलो दी गई। इतना ही नहीं, जेल से बाहर आने पर वह “सत्संग” करता है, वीडियो बनाता है, और खुलेआम प्रचार करता है – जैसे कोई फिल्मी हीरो हो।

2025 में तीसरी बार तो कुल 14वीं बार जेल से बाहर आया डेरा सच्चा सौदा का राम रहीम

वही आप को बता दें कि जेल में एक निश्चित समय बिताने और व्यवहार के बाद पैरोल और फरलो की प्रक्रिया अदालत में शुरू की जाती है। हालांकि, पैरोल की अवधि सजा में नहीं जोड़ी जाती है, जबकि फरलो की अवधि सजा में ही जोड़ी जाती है। 2025 में राम रहीम तीसरी बार जेल से बाहर आया है। वही फरवरी और अप्रैल में 21-21 दिन की फरलो मिल चुकी है। साथ ही 2017 से अब तक 14वीं बार पैरोल या फरलो मिली है।

चुनावी समय पर रिहाई

रोचक बात यह है कि राम रहीम की पैरोल अधिकतर चुनावों के समय दी जाती है – जैसे हरियाणा निकाय चुनाव, पंचायत चुनाव, और लोकसभा चुनाव 2024। यह संयोग है या सरकार की “रणनीति”?

देश

इमोशनल पहलू: जनता का दर्द

जब कोई गरीब किसान कर्ज नहीं चुका पाने पर जेल चला जाता है, जब एक छात्र परीक्षा में धोखाधड़ी के झूठे आरोप में महीनों जेल में रहता है, तब जनता को यह देखना पड़ता है कि एक बलात्कारी और हत्यारा व्यक्ति “बाबा” बनकर रिहा घूम रहा है, सत्संग कर रहा है, और लाखों लोगों को “धर्म” की शिक्षा दे रहा है।

क्या यह हमारी न्याय व्यवस्था की विफलता नहीं है?

क्या यही है VIP कल्चर, जहां रसूखदारों के लिए कानून अलग हो जाता है?

राजनीतिक सच्चाई क्या है?

डेरा सच्चा सौदा का पंजाब और हरियाणा के कई इलाकों में बहुत प्रभाव है। लाखों अनुयायी चुनावों को प्रभावित कर सकते हैं। यही कारण है कि राजनीतिक पार्टियाँ वोट बैंक के लालच में राम रहीम को ‘छूट’ देती हैं।

कोई सरकार उसे खुलेआम समर्थन देती है, तो कोई चुपचाप सहमति देती है। अदालत भी पैरोल को “नियमों के तहत” बताकर खुद को बचा लेती है।

क्या संदेश जा रहा है देश और समाज में?

जब अपराधी रिहा होकर प्रवचन देता है, जब उसकी “भक्ति” के नाम पर प्रचार होता है, जब वह सोशल मीडिया पर फिर से एक्टिव होता है – तब यह संदेश जाता है कि
“अगर आप ताकतवर हैं, तो कानून आपके आगे कमजोर है”।

क्या कानून की आंखों पर अब भी पट्टी है?

डेरा प्रमुख की बार-बार रिहाई एक आम नागरिक के मन में यह सवाल उठाती है कि क्या भारत में सज़ा सिर्फ कमजोरों के लिए है? क्या कानून की आंखों पर अब भी पट्टी है या अब वह भी देखती है कि सामने कौन खड़ा है – एक आम आदमी या एक ‘बाबा’?

जनता को अब जागना होगा, सवाल पूछना होगा –

“यह सजा है या मजा?”

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