जनता को लगता है कि नेताजी चुनाव जीतने के बाद उनके घर-आंगन तक खुशहाली ले आएंगे। पर हकीकत ये है कि नेता जी चुनाव जीतते ही जनता को भूल जाते हैं, और जनता की रोज़मर्रा की तकलीफें वहीं की वहीं रह जाती हैं।
बिजली नहीं है, पानी के लिए लोग लाइन में खड़े हैं, नौजवान नौकरी के लिए दर-दर भटक रहे हैं, किसान खेत में खून-पसीना बहाकर भी कर्ज़ में डूबे हैं, लेकिन नेता जी का ध्यान इन असली मुद्दों पर जाता ही नहीं है। उनको तो ज्यादा मज़ा आता है कहीं मंच पर बड़ी-बड़ी बातें करने में, या टीवी कैमरे के सामने “जनता-जनार्दन” कहकर हाथ हिलाने में।

जनता सोचती है कि शायद इस बार बदलाव होगा, लेकिन हर बार वही ढाक के तीन पात। नेता जी पांच साल तक जनता को मूर्ख समझते हुए भाषणों का झुनझुना बजाते रहते हैं।
गरीब मां सोचती है कि बेटे को नौकरी मिलेगी, लेकिन उसे मिलता है सिर्फ नेता जी का “वादा”। किसान सोचता है कि फसल का सही दाम मिलेगा, लेकिन नेता जी “स्माइल” देकर निकल जाते हैं। शहर का युवा सोचता है कि उसके सपनों का भारत बनेगा, लेकिन नेता जी उसे “जुमले” थमा देते हैं।
जनता का दर्द ये है कि उसके सवालों का कोई जवाब नहीं। लेकिन नेताजी का मज़ाक ये है कि वे जनता के सवाल को ही मज़ाक बना देते हैं।
हंसी तो तब आती है जब नेताजी सड़क पर गड्ढा देखकर कहते हैं – “ये सब पिछले सरकार की गलती है।” भाई साहब, आप पांच साल से राज कर रहे हैं, गड्ढा तो अब और गहरा हो गया है!
असल सच्चाई यही है कि जनता का भरोसा अब वादों पर नहीं, काम पर चाहिए। लेकिन जब तक नेताजी जनता को “पब्लिक” नहीं बल्कि “फ्री वोट बैंक” समझते रहेंगे, तब तक जनता सिर्फ ठगी जाएगी और नेता जी मंच पर व्यंग्य बनते रहेंगे।
नेताजी और जनता का “महान ड्रामा”
हमारी जनता बड़ी भोली है साहब! पांच साल तक रोशनी नहीं, पानी नहीं, नौकरी नहीं, लेकिन चुनाव आते ही वही जनता नेता जी की टोपी को सलाम ठोक देती है। नेता जी भी कमाल के कलाकार होते हैं – एक बार मंच पर चढ़ जाएं तो ऐसे भाषण झाड़ते हैं मानो कल ही गरीबी मिटा देंगे।
पर असली खेल तो जनता जानती है –
बिजली पूछो तो बोलेंगे “सोलर प्लांट का प्लान है”,
पानी पूछो तो कहेंगे “गंगा से जोड़ देंगे”,
नौकरी पूछो तो हंसकर बोल देंगे “अरे भाई, आत्मनिर्भर बनो”।
अब जनता समझ नहीं पाती कि नेता जी आत्मनिर्भर बना रहे हैं या बेरोज़गार ही छोड़ रहे हैं।

किसान बेचारा खेत में खट रहा है, लेकिन नेता जी का ध्यान फसल पर नहीं, सेल्फी पर ज्यादा है। गड्ढों से भरी सड़क पर जनता गिर-गिरकर उठ रही है, लेकिन नेता जी वही सड़क हेलिकॉप्टर से ऊपर से देखकर रिपोर्ट बना रहे हैं – “सड़क बहुत अच्छी है”।
सबसे मजेदार बात तो ये है कि जनता का दुख नेता जी को तब याद आता है जब चुनाव पास आता है। अचानक ही नेता जी को गांव की धूल, शहर की गंदगी, और गरीब की झोपड़ी सब कुछ प्यारी लगने लगती है। फोटो खिंचवाते हैं ऐसे कि लगे मानो बचपन से वहीं पले-बढ़े हों।
और जनता? जनता भी समझदार होकर भी मासूम है। हर बार वही वादों का लड्डू खाती है और फिर अगले पांच साल भूखी रह जाती है।
कभी-कभी लगता है, नेताजी और जनता का रिश्ता पति-पत्नी से भी गहरा है –
जनता हर बार नाराज़ होती है,
नेताजी हर बार मनाते हैं,
जनता हर बार मान जाती है,
और फिर वही पुरानी कहानी दोहराई जाती है।
असल में नेताजी जनता को मूर्ख नहीं समझते, बल्कि “मूर्ख बनाने की कला” में डॉक्टरेट किए हुए हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि जनता अब हंसते-हंसते रो रही है।
