क्या राहुल गांधी राजनीति करते-करते कहीं भारत की “लक्ष्मण रेखा” तो नहीं लांघ रहे हैं?
राहुल गांधी, भारत की राजनीति के एक प्रमुख चेहरे हैं। वे एक बड़े राजनीतिक परिवार से आते हैं, वे वर्तमान में लोकसभा में विपक्ष के नेता के रूप में कार्यरत हैं। और उनकी हर गतिविधि पर देशभर की निगाहें टिकी रहती हैं। लेकिन हाल के वर्षों में उनकी राजनीति जिस दिशा में जा रही है, वह एक गंभीर प्रश्न उठाती है — क्या राहुल गांधी राजनीति करते-करते भारत की “लक्ष्मण रेखा” लांघ रहे हैं?
“मेरा कम लोकतंत्र बचना नहीं है, वो सरकार का काम..? में सिर्फ आरोप लगा सकता हूं..?”
राजनीति में आलोचना सामान्य है…
लोकतंत्र में आलोचना, असहमति और बहस की पूरी स्वतंत्रता है। एक सशक्त विपक्ष का काम है कि वह सरकार से सवाल पूछे, नीतियों पर सवाल उठाए और जनहित की आवाज बने। राहुल गांधी ने यह भूमिका कई बार निभाई भी है — चाहे वह महंगाई का मुद्दा हो, बेरोजगारी, या किसानों के सवाल।
लेकिन जब आलोचना “अंध-विरोध” बन जाए
हालांकि, राजनीति में जब आलोचना की जगह “अंध-विरोध” ले लेता है, तब समस्या खड़ी होती है। राहुल गांधी कई बार विदेश में भारत की आलोचना कर चुके हैं — वहां के मंचों पर देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर बताना, भारत की छवि को धूमिल करना, या देश की जनता के जनादेश को सीधे-सीधे चुनौती देना — ये बातें केवल राजनीति नहीं हैं, ये उस “लक्ष्मण रेखा” के बेहद करीब जाती हैं, जिसे एक जिम्मेदार नेता को पार नहीं करना चाहिए।
क्या देशहित पीछे छूटता जा रहा है?
यह सवाल भी उठता है कि क्या राहुल गांधी की राजनीति अब सिर्फ सत्ता-विरोधी नहीं, बल्कि भारत-विरोधी नैरेटिव का हिस्सा बनती जा रही है? जब वे चीन और पाकिस्तान जैसे देशों के मुद्दों पर भारत सरकार से ज्यादा उन देशों की बात को तवज्जो देते हैं, तब संदेह होता है। जब वे सेना की कार्रवाई पर भी सवाल उठाते हैं, तब देश की सुरक्षा और सम्मान की “लक्ष्मण रेखा” खतरे में पड़ती नजर आती है।
लोकतंत्र की मर्यादा और राष्ट्रीय गरिमा
लोकतंत्र में असहमति आवश्यक है, लेकिन उसके साथ-साथ राष्ट्रीय गरिमा और संवेदनशीलता भी उतनी ही जरूरी है। अगर राजनीति केवल सत्ता पाने का खेल बन जाए, और उसमें देश की प्रतिष्ठा, सुरक्षा और आंतरिक एकता को ताक पर रख दिया जाए, तो यह एक खतरनाक संकेत है।
क्या यह सिर्फ ‘विरोध’ नहीं, बल्कि ‘अवरोध’ बनता जा रहा है?
राहुल गांधी की राजनीति कभी-कभी ऐसी लगती है जिसमें केवल सत्ता-विरोध नहीं, बल्कि हर उस चीज़ का विरोध है जो भारत की संस्थाओं से जुड़ी है। इससे यह आशंका पैदा होती है कि कहीं वे सत्ता के लिए जनता के भरोसे और संवैधानिक मर्यादाओं को ही चोट तो नहीं पहुंचा रहे?
सेना और संवैधानिक संस्थाओं पर शक?
जब किसी नेता के बयान देश की सेना, सुरक्षाबलों, या संवैधानिक संस्थाओं के प्रति जनता के विश्वास को कमजोर करें, तो वह न सिर्फ राजनीतिक शुचिता के खिलाफ है, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा और अखंडता के लिए भी खतरनाक हो सकता है।
राहुल गांधी ने कई मौकों पर सेना की कार्रवाई, राफेल डील, और ईडी-सीबीआई, न्यायपालिका, चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं पर बिना ठोस प्रमाणों के सवाल उठाए हैं। क्या यह स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी है, या फिर राजनीतिक फायदे के लिए देश की नींव को कमजोर करने की कोशिश?
निष्कर्ष:
राहुल गांधी को यह विचार करना चाहिए कि क्या उनकी राजनीति भारत के हित में है या केवल उनके दल और व्यक्तिगत एजेंडे तक सीमित है। लोकतंत्र में लक्ष्मण रेखा का सम्मान सभी को करना चाहिए — चाहे वह सरकार हो या विपक्ष। राजनीति की सीमा तब तक ही स्वीकार्य है, जब तक वह राष्ट्रहित के विरुद्ध न जाए। वरना इतिहास गवाह है, जब-जब लक्ष्मण रेखा टूटी है, विनाश अवश्य हुआ है।
राजनीति में विचारधारा का संघर्ष होना स्वाभाविक है, लेकिन उसकी भी एक लक्ष्मण रेखा होती है।
यह रेखा तब पार होती है जब:
- व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा, राष्ट्रीय प्रतिष्ठा से ऊपर आ जाए
- विदेशी मंचों पर देश को नीचा दिखाया जाए
- सेना और संवैधानिक संस्थाओं को संदेह के घेरे में लाया जाए
- देश की एकता और अखंडता को राजनीति का हथियार बना लिया जाए
राहुल गांधी को आत्मविश्लेषण करना चाहिए — क्या वे भारत को बेहतर बनाने की राजनीति कर रहे हैं, या फिर ऐसी राह पर बढ़ रहे हैं जहाँ लक्ष्मण रेखा लांघने का खतरा लगातार मंडरा रहा है?
राजनीति में “लक्ष्मण रेखा” सिर्फ सत्ता पक्ष के लिए नहीं होती — विपक्ष के लिए भी होती है।
और जब यह रेखा पार होती है, तो राजनीति निजी महत्वाकांक्षा का खेल बन जाती है, देशहित पीछे छूट जाता है।
जनता सब देख रही है, सब समझ रही है।
लोकतंत्र में जवाब सिर्फ सत्ता को नहीं, विपक्ष को भी देना होता है।
मर्यादा, संवेदनशीलता और राष्ट्रहित — ये राजनीति के भी मूल स्तंभ हैं, और इन्हें लांघना किसी के लिए भी उचित नहीं।
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