लोकतंत्र में चुनाव आयोग को हमेशा निष्पक्ष और पवित्र संस्था माना जाता है। इसका काम साफ, पारदर्शी और निष्पक्ष चुनाव कराना है। लेकिन जब विपक्ष के नेता राहुल गांधी संसद में खड़े होकर “मतों की चोरी” का आरोप लगाते हैं और दस्तावेज़ों के साथ गंभीर तथ्य रखते हैं, तो उम्मीद होती है कि मीडिया इस मुद्दे को उठाएगी।
आरोप और तथ्य राहुल गांधी के मुताबिक:
कई सीटों पर वोटर लिस्ट और वोटिंग प्रतिशत में बड़ा अंतर।
पोस्टल बैलेट और EVM के आंकड़ों में गड़बड़ी।
परिणाम घोषित करने में असामान्य देरी।
सीसीटीवी फुटेज और डेटा मिटाने के आरोप।
चुनाव आयोग ने इन आरोपों को “बेसलेस और वाइल्ड” कहा और उल्टा राहुल गांधी को शपथपत्र देने या माफी मांगने की चुनौती दी।
मीडिया क्यों चुप?
सरकारी दबाव और विज्ञापन निर्भरता – सरकार के विज्ञापन से होने वाली बड़ी कमाई, कवरेज पर असर डालती है।
राजनीतिक झुकाव – कुछ मीडिया संस्थान खुले तौर पर सत्ताधारी पक्ष के नैरेटिव को मजबूत करते हैं।
कानूनी और प्रशासनिक भय – कोर्ट केस, नोटिस और लाइसेंस पर खतरा।
गहन जांच का अभाव – बिना सर पैर का सतही बहस तो होती है, लेकिन डेटा-आधारित पत्रकारिता गायब है।
फ्री प्रेस की सीमाएँ
भारत में प्रेस को संवैधानिक आज़ादी है, लेकिन आर्थिक और राजनीतिक दबाव के चलते यह स्वतंत्रता कई बार केवल कागज पर रह जाती है।
कई स्वतंत्र पत्रकार और छोटे डिजिटल पोर्टल ही गहन जांच करने की कोशिश करते हैं, लेकिन उनके पास संसाधनों की कमी होती है।
बड़े मीडिया हाउस TRP और विज्ञापन के दबाव में सरकार से टकराव से बचते हैं।
लोकतंत्र पर दीर्घकालिक असर
जनता का भरोसा टूटना – अगर वोट की पवित्रता पर शक हो जाए, तो लोकतंत्र की जड़ें कमजोर होती हैं।
सत्ता का केंद्रीकरण – जवाबदेही घटती है और एक ही पक्ष के हाथ में ताकत सिमटने लगती है।
सच और झूठ की धुंध – जब मीडिया चुप हो, तो जनता तक आधा-अधूरा सच ही पहुंचता है। देश की टीवी मीडिया हो या प्रिंट मीडिया यानी अखबार,जब नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी द्वारा जो आंकड़े और तथ्य सामने रखा गया है उस पर चुनाव आयोग और सरकार से सवाल पूछने की बजाय वह सरकार और चुनाव आयोग का ही पक्छ रख रही है। और इस मुद्दे की जगह हिन्दू- मुस्लिम और गैर जरूर खबरों पर डिबेट कर रही है। इससे यह साफ होता जा रहा है कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ अब बिक चुका है और सत्ता की चरण वंदना में लगी हुई है.
जब लोकतंत्र का दिल सवालों के घेरे में हो…
यह सिर्फ राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का मसला नहीं है—यह किसी किसान की आशा, किसी युवा का सपना और हर उस नागरिक का अधिकार है जिसने अपने वोट से लोकतंत्र को संवारने में हिस्सेदारी ली।
जब मीडिया सवाल पूछना रोक दे, तो लोकतंत्र की आत्मा कमजोर हो जाती है। हमें याद रखना होगा—सच्चाई को उजागर करना कोई अपराध नहीं, बल्कि यह राष्ट्र के भविष्य के लिए पवित्र जिम्मेदारी है।
केवल राजनीति मुद्दा नहीं भावनात्मक पहलू भी
ये केवल राजनीति का मुद्दा नहीं—ये एक मजदूर के सपने, एक किसान की उम्मीद और एक छात्र के भविष्य का सवाल है। हर नागरिक ने अपने वोट से लोकतंत्र को मजबूत करने की कोशिश की है। अगर उस वोट की गिनती पर शक हो जाए, तो ये पूरे देश का अपमान है।
मीडिया से अंतिम सवाल
क्या मीडिया का काम सिर्फ सरकार की तारीफ करना रह गया है?
क्या सच दिखाना अब इतना खतरनाक हो गया है कि चौथा स्तंभ भी चुप है?
अगर जनता खुद सवाल नहीं पूछेगी, तो लोकतंत्र सिर्फ एक कागजी ढांचा बनकर रह जाएगा।
चुनाव आयोग पर ‘वोट चोरी’ का आरोप—मीडिया का मौन, लोकतंत्र का संकट
1. आरोपों की पुख्ता रूपरेखा
राहुल गांधी ने आरोप लगाया है कि चुनाव आयोग (EC) भाजपा के पक्ष में ‘वोट चोरी’ में शामिल है, और उनके पास इस बात के “open-and-shut” सबूत मौजूद हैं। उन्होंने इसे “एटम बम” की तरह बयान किया, जो फटते ही आयोग के पास कहीं छुपने की जगह नहीं रहेगी। सुप्रीम कोर्ट में भी कोई औपचारिक शिकायत या संवाद नहीं किया गया, इसके बावजूद आरोप लगातार बने हुए हैं।
राहुल गांधी ने बताया कि महाराष्ट्र में एक करोड़ नए मतदाता अचानक वोटर लिस्ट में शामिल किए गए, जिससे गड़बड़ी का अंदेशा उत्पन्न हुआ।
कर्नाटक के महादेवपुरा विधानसभा क्षेत्र के डेटा को डिजिटल रूप में बदल कर छह महीने की जांच के बाद, उन्होंने “वोटर लिस्ट में घुसपैठ” का उदाहरण सामने रखा।
विशेष सुधार अभियान (SIR) को राहुल ने “संस्थागत चोरी” बताया, जो गरीबी और वंचित वर्गों के मतदान अधिकार को छीनने का साधन है।

2. चुनाव आयोग और अन्य पक्षों की प्रतिक्रिया
आयोग ने आरोपों को “बेसलेस,” “वाइल्ड,” और “असंसवैधानिक” बताया, तथा अधिकारियों को इन दावों पर ध्यान न देने का निर्देश दिया।
आयोग (जैसे कर्नाटक CEO) ने राहुल गांधी को शपथपत्र के साथ फर्जी मतदाताओं का विवरण प्रस्तुत करने के लिए कहा, अन्यथा माफी की चेतावनी दी।
कर्नाटक की राज्य सरकार के भीतर, धर्मुगाम रोड महादेवपुरा और गंधीनगर क्षेत्रों से वोटर फ्रॉड की शिकायतें ईसीओ कार्यालय में दर्ज की गई—डुप्लिकेट पंजीकरण और गलत पते जैसी गड़बड़ियां उजागर हुई हैं।
एनसीपी के नेता शरद पवार ने इस मुद्दे पर “सुपष्ट और प्रामाणिक डेटा” वाले जांच की मांग की, ताकि “दूध का दूध और पानी का पानी” साफ हो सके।
मीडिया का मौन और लोकतंत्र पर असर
मुद्दा विस्तार
मीडिया की चुप्पी : मीडिया की आर्थिक निर्भरता, राजनीतिक झुकाव और कानूनी भय की वजह से यह विषय गहनता से नहीं उठ पाया—जिससे जनता तक सच पूरी तरह नहीं पहुंच सका।
लोकतांत्रिक व्यवस्था पर असर : यदि वोट की पवित्रता पर सवाल उठते हैं और मीडिया उनका परीक्षण नहीं करता, तो लोकतंत्र की जड़ें कमजोर पड़ जाती हैं, ईमानदारी (integrity) और जवाबदेही टूटती है।
भावनात्मक प्रभाव : यह केवल राजनीतिक आरोप नहीं—यह हर किसान, मजदूर, छात्र और महिला के वोट की गरिमा का सवाल है। वोट को तिरस्कार का सामना कराने जैसा है।
अंतिम सवाल—आज का महत्वपूर्ण सवाल
क्या मीडिया की भूमिका अब केवल TRP और विज्ञापन तक सीमित हो गई है?
अगर चौथा स्तंभ बोलना भूल जाए, तो लोकतंत्र का संरक्षक कौन बनेगा?
क्या हम खुद सवाल नहीं उठाएंगे, तो लोकतंत्र नाम का एक ढांचा रह जाएगा?