बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और देश के तमाम हिस्सों में आज लोक आस्था का सबसे पवित्र पर्व छठ महापर्व अपने चरम पर है। आज शाम डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य दिया जाएगा। लाखों श्रद्धालु नदियों, तालाबों और घाटों पर निर्जला व्रत रखकर अपने आराध्य सूर्य देव और छठी मइया की उपासना में लीन हैं। यह सिर्फ पूजा नहीं, बल्कि लोक संस्कृति, त्याग और विश्वास का जीवंत प्रतीक है।
छठ पर्व की खूबसूरती इसकी सादगी
छठ पर्व की खूबसूरती इसकी सादगी और अनुशासन में बसती है। न कोई पंडित, न कोई भारी-भरकम आयोजन — बस आत्मा से निकली प्रार्थना और आस्था की गहराई। महिलाएं (व्रतधारी जिन्हें ‘पार्वती’ या ‘व्रती’ कहा जाता है) 36 घंटे तक बिना अन्न-जल ग्रहण किए, अपने परिवार और समाज की सुख-समृद्धि की कामना करती हैं।
आज शाम का दृश्य हर घाट पर एक जैसा होगा — अरुणिमा में डूबते सूर्य को अर्घ्य देते समय हर आंख नम होती है, हर दिल भावनाओं से भर जाता है। ढोल-मंजीरे की थाप, लोकगीतों की गूंज, “कांच ही बांस के बहंगिया” और “पटना के घाट पर” जैसे गीत माहौल को भावनाओं से सराबोर कर देते हैं।
लोक कथाओं में कहा जाता है कि छठ पर्व की शुरुआत सूर्य पुत्री छठी मइया के आशीर्वाद से हुई थी, जिन्होंने संतुलन और प्रकृति के प्रति श्रद्धा का संदेश दिया। वहीं, रामायण और महाभारत में भी सूर्य पूजा के उल्लेख मिलते हैं — सीता माता और कुंती द्वारा सूर्य की आराधना इसका उदाहरण हैं।
छठ बिहारियों का पहचान और भावनात्मक जुड़ाव
छठ सिर्फ बिहार का नहीं, बल्कि अब पूरे भारत और विदेशों में बसे बिहारियों का पहचान और भावनात्मक जुड़ाव बन चुका है। दिल्ली, मुंबई से लेकर दुबई और न्यूयॉर्क तक गंगाजल से भरे कलश और मिट्टी के दीपों से घाट सजे हैं।
इस पर्व की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसमें शुद्धता, सामूहिकता और प्रकृति के प्रति सम्मान झलकता है। हर घर, हर मोहल्ले में लोग मिलकर घाट की सफाई करते हैं, सजावट करते हैं और प्रसाद बनाते हैं।

आज जब व्रती महिलाएं डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य देंगी, तब हर परिवार के चेहरे पर उम्मीद और आशीर्वाद की झिलमिल रोशनी होगी। कल सुबह उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देकर यह चार दिवसीय पर्व सम्पन्न होगा — लेकिन इसके बाद भी लोगों के मन में आस्था की लौ जलती रहेगी।
छठ केवल एक पर्व नहीं, यह मिट्टी से जुड़ी आस्था, मातृत्व की ममता और मानवता की एक मिसाल है।
