भारत की मिट्टी में जितने रंग हैं, उतनी ही भावनाएँ। इन सबके बीच एक त्योहार ऐसा है जो सच्चाई, पवित्रता और प्रकृति की आराधना का अद्भुत संगम है —वह है छठ महापर्व।
यह कोई साधारण पर्व नहीं, बल्कि वेदों, रामायण और महाभारत के युग से चला आ रहा सूर्य उपासना का सबसे पवित्र व्रत है, जहाँ न कोई मूर्ति होती है, न भव्य पूजा-पंडाल — बस सच्ची नीयत, निर्मल जल और आस्था से भरा मन। बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और देश-दुनिया में बसे भोजपुरी-मगही अंचल के लोगों के बीच छठ महापर्व सिर्फ एक त्योहार नहीं, बल्कि आस्था, विश्वास और संस्कार का सबसे बड़ा उत्सव है। आज से यह चार दिवसीय व्रत शुरू हो रहा है, जिसमें सूर्य देव और छठी मइया की पूजा के साथ लोक परंपरा और पवित्रता का अद्भुत संगम देखने को मिलता है।

वेदों से लेकर रामायण-महाभारत तक जुड़ी परंपरा
वेदों और पुराणों में छठ की जड़ें
छठ का उल्लेख सबसे पहले ऋग्वेद में मिलता है, जहाँ सूर्य देव की आराधना को “ऊर्जा और जीवन का स्रोत” बताया गया है।
महाभारत में भी कथा आती है कि जब पांडवों को वनवास मिला, तब कुंती और द्रौपदी ने सूर्य की उपासना कर अपने परिवार के कल्याण की कामना की थी।
रामायण में माता सीता जी ने भी अयोध्या लौटने के बाद कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सूर्य पूजा कर व्रत रखा था।
इसी से यह परंपरा लोकजीवन में रच-बस गई।
चार दिनों की पवित्र परंपरा
1. नहाय-खाय (पहला दिन): व्रत की शुरुआत शुद्धता से होती है। महिलाएं नदी या तालाब में स्नान कर पवित्र भोजन बनाती हैं और उसी से व्रत की शुरुआत करती हैं।
2. खरना (दूसरा दिन): इस दिन व्रती पूरे दिन निर्जला उपवास रखती हैं और शाम को गुड़ और चावल से बने खीर-रोटी का प्रसाद ग्रहण करती हैं।
3. संध्या अर्घ्य (तीसरा दिन): व्रती अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देती हैं। घाटों पर लोकगीत, भक्ति और भावनाओं की लहरें दौड़ती हैं।
4. भोर का अर्घ्य (चौथा दिन): अंतिम दिन उगते सूर्य को अर्घ्य देकर व्रत का समापन होता है। यह दृश्य आस्था और सौंदर्य का चरम होता है।
लोकगीतों और भक्ति से गूंजता आकाश
छठ के दिनों में गाँव-शहर सब भक्ति के रंग में डूब जाते हैं। शारदा सिन्हा और अनुराधा पोरवाल के गीतों के बिना छठ अधूरा है ।
“केलवा जे फरेला घवद से…” और “उग हो सूरज देव…” जैसे लोकगीतों से पूरा वातावरण गूंज उठता है।
हर आंगन में बांस की टोकरी, फल-फूल, ठेकुआ, नारियल और गन्ना जैसे प्रसाद की तैयारी होती है। ये प्रसाद सिर्फ भोजन नहीं, बल्कि श्रद्धा और त्याग का प्रतीक हैं।
सच्ची घटना: एक माँ की आस्था, जिसने बदल दी किस्मत
यह कहानी भागलपुर जिले की है।
सावित्री देवी नाम की एक गरीब महिला थीं। पति का देहांत जल्दी हो गया। बेटा गंभीर रूप से बीमार पड़ा — कई डॉक्टरों ने जवाब दे दिया।
पैसे नहीं थे, पर माँ का विश्वास था कि “छठ मइया सबका सुनती हैं।”
उन्होंने पहली बार छठ का व्रत रखा — बिना संसाधन, बिना किसी मदद के। गाँव की औरतों ने घाट तक पहुँचने में साथ दिया।
चार दिन का व्रत इतना कठिन कि उन्होंने खुद को भूख-प्यास में झोंक दिया, पर माथे पर शिकन नहीं आई।
भोर के अर्घ्य के समय जब सूरज की पहली किरण उनके माथे पर पड़ी, उन्होंने आँखें बंद कर कहा —
“मइया, बस मेरा बेटा ठीक कर दो, फिर चाहे मुझसे सब कुछ ले लो।”
चमत्कार हुआ। कुछ दिनों में बेटा धीरे-धीरे ठीक होने लगा।
आज वही बेटा शिक्षक है। हर साल वह अपनी माँ की तरह छठ का व्रत करता है।
सावित्री देवी अब नहीं रहीं, लेकिन उनके घर के आँगन में आज भी छठ की ठेकुआ की खुशबू और माँ की आस्था जीवित है।
लोकगीतों में समाई श्रद्धा और भक्ति
छठ के दिनों में भोजपुरी अंचल का हर कोना गीतों से गूंजता है —
“उग हो सूरज देव भइया, अरघ दिहिन हे माय…”
“कांच ही बांस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाए…”
ये गीत सिर्फ स्वर नहीं, बल्कि जनता के दिल की आवाज हैं।
महिलाएं नदी-घाटों पर सैकड़ों दीप जलाती हैं — जैसे धरती खुद सूर्य की रोशनी को लौटा रही हो।
प्रकृति से सीधा जुड़ाव
छठ महापर्व पर्यावरण का सबसे सुंदर उदाहरण है।
पूरी पूजा प्रकृति के तत्वों — सूर्य, जल, वायु, भूमि और फल-फूल से जुड़ी होती है।
कहीं भी कृत्रिम चीजें नहीं — न बिजली की लाइट, न कोई शोर। सिर्फ सूरज, नदी और मन की रोशनी।
यही कारण है कि इसे प्रकृति पूजा का सबसे प्राचीन और वैज्ञानिक पर्व कहा जाता है।
त्याग और परिवार का प्रतीक
छठ में व्रती महिलाएं अपने परिवार, संतान और समाज के कल्याण के लिए व्रत रखती हैं।
यह व्रत हमें सिखाता है कि सच्ची पूजा दिखावे से नहीं, त्याग और अनुशासन से होती है।
छठ के दौरान हर घर में सहयोग का भाव होता है — कोई प्रसाद बनाता है, कोई सजावट करता है, कोई घाट पर सफाई रखता है।
यही मिलजुल कर करने की भावना छठ को एक समूहिक पर्व बना देती है।

भावनाओं से जुड़ा पर्व
छठ महापर्व में व्रती महिलाएं परिवार की सुख-समृद्धि और संतान की लंबी उम्र के लिए व्रत रखती हैं। यह पर्व सादगी, अनुशासन और आत्मसंयम का संदेश देता है।
छठ में कोई दिखावा नहीं, सिर्फ सच्ची आस्था और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता होती है। यही कारण है कि यह पर्व जाति, धर्म और वर्ग की सीमाओं को पार कर जन-जन का उत्सव बन गया है।
छठ महापर्व सिर्फ सूर्य की आराधना नहीं
छठ महापर्व सिर्फ सूर्य की आराधना नहीं, बल्कि जीवन में उजाला, ऊर्जा और संतुलन का संदेश देता है।
आज जब समाज आधुनिकता की दौड़ में भाग रहा है, तब छठ जैसी परंपराएं हमें हमारी जड़ों, संस्कृति और आस्था से जोड़ती हैं।
सूर्य की रोशनी में नहाई यह परंपरा बताती है कि जब मन सच्चा और आस्था पवित्र हो, तब हर व्रत, हर पूजा सफल होती है।
