सवाल अब भाजपा की जीत पर नहीं, बल्कि विपक्ष की मूर्खताओं पर है!
Politics Gyan: भारतीय लोकतंत्र की मजबूती का आधार केवल सत्तारूढ़ दल नहीं बल्कि उतना ही सक्षम और जिम्मेदार “विपक्ष” है। लोकतंत्र का पहिया तब ही अच्छी तरह चलता है जब सत्ता और विपक्ष दोनों अपने-अपने दायित्वों को समझदारी, रणनीति और व्यवस्था के साथ निभाते हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह सवाल बार-बार उठता रहा है कि—“क्या विपक्ष अपनी ही गलतियों और कमजोरियों के चलते प्रभावहीन होता जा रहा है?”
कितना हैरानी भरा है यह सत्य! आप चाहें तो सिर पकड़ लें, मन टूटता महसूस करें या चिंता में घुल जाएँ, पर सच दो टूक ही है, और वो अडिग खड़ा है। फिर साबित हुआ है कि लोकसभा चुनाव में झटके के बाद राज्यों में भाजपा का लगातार जीतते जाना केवल संगठन की वजह से नहीं बल्कि प्रबंधकीय कौशल से है। और इसके लिए भाजपा को नहीं बल्कि नरेंद्र मोदी व अमित शाह को ही श्रेय देना होगा। यह जोड़ी बाधा – रहित है। महाराष्ट्र, हरियाणा, दिल्ली और अब बिहार—हर जगह ऐसी सहजता के साथ विजय पाई है कि विपक्ष फिलहाल को ऐसी योग्यता के लिए भी हांफता हुआ है।
विधानसभाओं में विपक्ष अब किसी भूत-सा दिखाई देता है। उपस्थिति के सिर्फ नाम, सिद्धांत में जबकि प्रभाव में लगभग अनुपस्थित। भाजपा की रणनीति इतनी सूक्ष्म, इतनी बारीक है, कि आलोचना भी निरर्थक है, यहां रणनीति बहुत गहरी और नीचे तक है।
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एक सवाल मेरे मन में आता है “विपक्ष ने बिहार चुनाव का बहिष्कार ही क्यों नहीं कर दिया?” आखिर तूफ़ान में बिना आसरा, बिना रणनीति और बिना कथा उतरने का मतलब क्या था?
यह कटु व चौंकाने वाली सोच है। पर ऐसे ख्याल, ऐसी भावना फैल रही है। अब विमर्श यह नहीं पूछ रहा कि भाजपा इतनी निर्णायक जीत कैसे हासिल कर रही है? प्रश्न अब कहीं अधिक ठंडा, अधिक चुभता हुआ है, विपक्ष क्यों हैरान कर देने वाली एक ही अयोग्यता बार-बार दोहरा रहा है? जो सवाल कल तक भाजपा की चुनावी मशीनरी पर होते थे, आज विपक्ष की मूर्खताओं पर पूछे जा रहे हैं, यह कि आने वाला तूफान दिखा क्यों नहीं?
यही वह मोड़ है जहाँ देश का मनोभाव लड़खड़ाने लगा है। यह केवल भय नहीं। यह पूरी निराशा भी नहीं। यह कुछ और गहरा है: ऐसा अहसास कि मुकाबला टॉस से पहले ही खत्म हो चुका है। कि संस्थाएँ टिक नहीं पाएँगी, नागरिक थक कर समायोजित हो जाएँगे। कि आक्रोश छह घंटे ट्रेंड करेगा और रात के खाने से पहले गायब हो जाएगा। क्योंकि भाजपा, चाहे आप उसकी प्रशंसा करें या आलोचना, श्रेष्ठता को स्वाभाविक दिखाने की कला में पूर्ण निपुण हो चुकी है। दुख की बात यह है कि विपक्ष ने प्रयास करना ही लगभग बंद कर दिया है।
ध्यान रहें: यह केवल संख्या का खेल नहीं। यह विचारधाराओं का टकराव भी नहीं। यह सत्ता की भौतिकी है, जिसे भाजपा अस्थि-मज्जा (Bone marrow) तक समझती है। वे चुनाव लड़ते नहीं, इंजीनियर करती हैं। वे मौसमों की नहीं, युगों की तैयारी में लगे हैं। और तब यह गहरा सवाल सामने आता है—जब जीत ही लोकतंत्र की अकेली भाषा बन जाए, और विपक्ष बोलना ही भूल जाए, तब लोकतंत्र का क्या बचता है?
पिछले ग्यारह वर्षों में विपक्ष समझ ही नहीं पाया कि मोदी और शाह चुनावों से रचे-बसे हैं। प्रधानमंत्री मोदी के लिए चुनाव कला और रंगमंच हैं— जहां नारे, मंच, और वह अभेद्य कवच जो जीत उन्हें पहनाती है। अमित शाह के लिए चुनाव प्रदर्शन नहीं, वास्तुकला हैं, नापतौल, गणित, ठंडा, तेज, अडिग। यदि मोदी मिथक हैं, तो शाह गणना हैं। और वहीं विपक्ष चुनाव ऐसे लड़ता है जैसे मौसम हों, आते-जाते व अस्थायी। भाजपा की 24×7 राजनीतिक मशीनरी के सामने विपक्ष एक अस्थायी दुकान है।
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बिहार चुनाव को ही देख लें। तेजस्वी यादव ने 2024 लोकसभा में खूब शोर मचाया। जिलों में दौरे, मुसलमान–यादव आधार को सक्रिय करने की कोशिश, और कुछ हद तक एक युवा, तेजतर्रार विपक्षी चेहरे की झलक। पर नतीजे सामने आते ही और वोट-टू-सीट रूपांतरण होते ही गति थम गई। तेजस्वी भी। बाद के महीनों में वे कम दिखाई दिए। राजनीति सड़कों से हटकर उनकी सक्रियता पारिवारिक खटास, भाइयों के झगड़े और संगठनात्मक ढिलाई में बदल गई। वे न युवा बिहार के प्रतीक बने, न ही नीतीश कुमार का विकल्प। और जब 2025 विधानसभा चुनाव के ठीक पहले वे अवतरित हुए—राघोपुर, जन सभाएँ, भाषण, वादे—तब तक बहुत देर हो चुकी थी। लापरवाही जमीन पर गुल खिला चुकी थी। भाजपा गठबंधन पहले ही जमीन कस चुका था।
विपक्ष का गहरा संकट है
यही विपक्ष का गहरा संकट है—वे भाजपा से अधिक विपक्ष अपने भीतर नाटक रचता हैं। मोदी के तमाशे का प्रतिपक्ष गढ़ने के बजाय वे खुद अपना तमाशा बन जाते हैं। प्रेस कॉन्फ्रेंस कन्फेशन बन जाती हैं, अहंकार विचारधारा से ऊँची आवाज़ में टकराता है, और कथा का एकमात्र सूत्र बचता है—ढहना, फ्लॉप होना। वे सरकार का उतना विरोध नहीं करते, जितना एक-दूसरे का। यह वक्त कहानी माँगता है जबकि वे कोरियोग्राफी (नृत्यरचना) देते हैं। भाजपा जहाँ सत्ता का प्रदर्शन करती है, विपक्ष अलग – थलग और खींचतान का।
सो विपक्ष में नेता बहुत मगर नेतृत्व बहुत कम। ताज के दावेदार अनेक, पर दृष्टि का कालखंड व समय किसी के पास नहीं।
इसलिए यह क्षण केवल भाजपा की उपलब्धि का नहीं, विपक्ष की निष्क्रियता व इनएक्टिविटी, उसकी असल हकीकत का भी है। यदि 2014 में देश ने मोदी में आशा देखी थी, तो 2024 की झिलमिल सेकंडभर की उपलब्धियों में एक दूसरी संभावना भी दिखी थी—एक आशा के भीतर दूसरी आशा। पर आज, डेढ़ वर्ष बाद, वह भाव कम पड़ चुका है। और शायद इसी कारण इस बार भाजपा की जीत असाधारण लगती है—क्योंकि परिणाम चौंकाता नहीं, क्योंकि उसके रास्ते में कुछ था ही नहीं। कोई प्रतिद्वंद्वी विचार नहीं, कोई टक्कर देती कल्पना नहीं, कोई अलग भारत का सपना नहीं।
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यही असली ख़तरा है – विपक्ष का शून्य
तो हाँ, अब मुझे यह लिखने में रुचि नहीं कि भाजपा सत्ता में कैसे बनी रहती है। वह कहानी भयावह है पर अब पूर्वानुमन भी। असली कहानी यह है कि विपक्ष इतना मूर्ख कैसे बना रह सकता है? लोकतंत्र तब नहीं मरता जब एक पक्ष बहुत शक्तिशाली हो जाए; वह तब मरता है जब दूसरा पक्ष इतना अक्षम व कमजोर हो जाए कि कोशिश भी न करे।
भारत का संकट कल्पना का संकट है
- आज भारत का संकट अधिनायकवाद (अनियंत्रित शक्ति) की अधिकता से नहीं, कल्पना की कमी से है।
- सत्ता ने विपक्ष को चुप नहीं कराया; विपक्ष ने अपनी आवाज़ छोड़ दी है।
- यदि आज भाजपा समय लिख रही है, तो इसलिए कि विपक्ष ने लिखना बंद कर दिया है।
क्या वास्तव में ये ‘मूर्खताएँ’ हैं? या संरचनात्मक चुनौतियाँ?
हालाँकि विपक्ष की कई कमियाँ वास्तविक हैं, लेकिन उन्हें केवल ‘मूर्खता’ कहना भी सही नहीं होगा।
यह कई बार—
- संसाधनों की कमी,
- राजनीतिक दबाव,
- विविध हितों वाले गठबंधन की जटिलता,
- और बदलते राजनीतिक परिदृश्य—
जैसी संरचनात्मक चुनौतियों का परिणाम भी है।
निष्कर्ष:
विपक्ष की मजबूती ही लोकतंत्र की मजबूती है
लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका केवल सत्ता की आलोचना करना नहीं, बल्कि
- जनता की आवाज़ उठाना,
- मुद्दों पर वैकल्पिक दृष्टिकोण देना,
- और सरकार को जवाबदेह बनाना
इन महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों का निर्वाह करना है।
इसलिए जब हम कहते हैं कि “सवाल अब विपक्ष की मूर्खताओं पर है” तो यह केवल कटाक्ष नहीं बल्कि “लोकतंत्र की सेहत पर गंभीर चिंता” भी है।
एक मजबूत, संगठित, तथ्यपूर्ण और दूरदृष्टि रखने वाला विपक्ष न केवल देश की राजनीति को संतुलित करता है बल्कि शासन व्यवस्था को भी बेहतर बनाता है।
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Note:
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