लद्दाख में जो कुछ बीते दिनों हुआ, उसने पूरे देश को हिला कर रख दिया। चार लोगों की जान चली गई, दर्जनों घायल हुए, कर्फ्यू लगा, इंटरनेट बंद हुआ और गलियों में सेना-पुलिस की गाड़ियाँ गश्त करती दिखीं। सवाल ये नहीं है कि किसने पत्थर फेंका या किसने गोली चलाई। असली सवाल यह है कि हालात इतने बिगड़े ही क्यों कि शांति का पैगाम देने वाली धरती पर खून बहा?

यह केवल राजनीति नहीं, पहचान की लड़ाई है

2019 में जब जम्मू-कश्मीर को तोड़कर लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया, तब बहुतों को लगा था कि अब विकास की गंगा बहेगी। लेकिन हकीकत यह है कि लोगों को अपनी आवाज़ दबती महसूस होने लगी। न चुना हुआ विधानसभा, न संवैधानिक सुरक्षा, न ही स्थानीय युवाओं को रोज़गार और ज़मीन पर गारंटी। यही वजह है कि “राज्य का दर्जा दो, छठी अनुसूची दो” जैसी मांगें अब लोगों की जुबान पर हैं।

लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा

छठी अनुसूची (Sixth Schedule) की संवैधानिक सुरक्षा — जिससे जनजातीय और स्थानीय स्वायत्तता, सामाजिक–आर्थिक अधिकार सुनिश्चित हो सकें

स्थानीय युवाओं के लिए रोजगार आरक्षण और वरीयताएँ

स्थानीय नीतियों में भागीदारी और संवैधानिक रूप से पिरोया गया प्रतिनिधित्व

ये मांगें केवल राजनीतिक नहीं थीं — ये सांस्कृतिक पहचान, ज़मीन और भाषा की रक्षा की पुकार थीं।

जब अनसुनी आवाज़ें चीख में बदलती हैं

लद्दाख के लोग सालों से सरकार से कह रहे हैं – हमारी संस्कृति, हमारी ज़मीन, हमारे रोजगार की रक्षा करो। लेकिन जब बार-बार सिर्फ़ आश्वासन मिले और ठोस कदम न दिखें, तो ग़ुस्सा फूटना लाजमी है। आज हालात यह हैं कि जिन युवाओं को देश की ताक़त बनना चाहिए था, वही सड़कों पर लाठियाँ और गोलियाँ झेल रहे हैं।

दोष किसका?

सरकार कहती है कि नेताओं और कार्यकर्ताओं ने लोगों को भड़काया। आंदोलनकारी कहते हैं कि सरकार ने बातचीत के दरवाजे बंद कर दिए। सच्चाई शायद बीच में कहीं है। लेकिन चार निर्दोषों की जान चली गई, यह सच्चाई सबसे बड़ी है। लोकतंत्र में नागरिकों की मौत किसी भी बहस से बड़ी त्रासदी है।

लद्दाख
जलवायु परिवर्तन कार्यकर्ता सोनम बानचूक

भावुक पहलू: आवाज़, पीड़ा और आशा

उन परिवारों की चोट

चार जवान या नागरिक — कौन वे थे, कौन उन्हें याद करेगा? इन चेहरों के पीछे माँ-पिता, बेटे-बेटियाँ, और वे दोस्त हैं जो अब चुपचाप आँसू पोछते होंगे। विवाद और राजनीति के बीच, ये जानें “अंक” नहीं, “इंसान” थे।

गायब बचपन, अधूरा सपना, उन परिवारों की हालत को कौन समझेगा? जो उम्मीदें लंबी रातों में पलीं थीं, वे अब धुंधली हो गई हैं।

अब रास्ता सिर्फ संवाद से निकलेगा

सरकार चाहे तो बल प्रयोग करके कुछ दिन हालात शांत कर सकती है, लेकिन यह स्थायी हल नहीं होगा। लद्दाख को भरोसा चाहिए, संवैधानिक गारंटी चाहिए, और सबसे ज़रूरी – सम्मान चाहिए। सरकार अगर दिल खोलकर संवाद करे, स्थानीय नेताओं और युवाओं को साथ लेकर चले, तो हालात सुधर सकते हैं।

लोकतंत्र सिर्फ़ वोट और चुनाव तक सीमित नहीं

लद्दाख की घटना हमें याद दिलाती है कि लोकतंत्र सिर्फ़ वोट और चुनाव तक सीमित नहीं है। लोकतंत्र तब जीवित रहता है जब हर कोने में रहने वाले नागरिक की आवाज़ सुनी जाए। अगर दिल्ली के गलियारों में बैठकर लद्दाख की पुकार को नज़रअंदाज़ किया जाएगा, तो यह आग और फैलेगी। सरकार को चाहिए कि वह लद्दाख की पीड़ा को समझे और समाधान खोजे, वरना आने वाले सालों में यह घाव और गहरा होगा।

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