बिहार… जी हां वही राज्य! देश के नक्शे में जगह तो है, पर योजनाओं में आज भी ‘कोरी कल्पना’ बना हुआ है। जब भी कोई नया नेता आता है, तो मंच से बोले गए वादों की गूंज पटना से लेकर पप्पू यादव के गांव तक सुनाई देती है – “बिहार को बनायेंगे सिंगापुर!”, “हर हाथ को काम, हर खेत को पानी!”, “बिहार बदल रहा है जी!”, लेकिन जब पांच साल बीत जाते हैं, तो हम पूछते हैं – “भैया, बदला कहां? चेहरा तो अब भी वही पुराना है, बस पोस्टर में नया फ़ोटो चिपक गया है।”

बिहार में पैसा आता है, मगर जाता कहां है?

हर साल केंद्र से राज्य को हजारों करोड़ रुपये मिलते हैं ऐसा कहा जाता है। योजनाएं बनती हैं, फाइलें चलती हैं, कागजों में पुल बनते हैं, स्कूल खुलते हैं, रोजगार आता है। लेकिन जमीनी हकीकत पूछिए तो पंचायत भवन के बाहर खड़ा रामलाल बोलता है –

“सरकारी पैसा तो इतना आ रहा है बाबू, लगता है ATM बिहार में ही खुला है… बस उसमें से आम जनता का कार्ड ब्लॉक है!”

गांव के टोले में सड़क बनाने की योजना आई थी। मंत्री जी आए, नारियल फोड़ा, फोटो खिंचवाया, सोशल मीडिया पर पोस्ट हुआ – #बदलता_बिहार, और फिर सड़क बनाने वाला ठेकेदार ‘कहीं और निकल गया’। अब सड़क नहीं, बस गड्ढे हैं, और चुनावी वादे का गड्ढा तो सबसे गहरा होता है।

बिहार

शिक्षा की ‘उड़ान’ – बस पंख ही नहीं हैं

बिहार में हर बार कहा जाता है – “शिक्षा सुधारेंगे।” लेकिन ज़मीनी सच्चाई ये है कि कई सरकारी स्कूलों में आज भी शिक्षक नहीं हैं, बच्चों को मिड-डे मील में सिर्फ ‘खिचड़ी की ख़बर’ मिलती है।

बच्चा बोले – “सर खाना मिलेगा?”
टीचर बोले – “बजट नहीं आया।”
बच्चा फिर बोले – “पढ़ाई?”

टीचर हंसा – “वो तो ऑनलाइन है बेटा, नेटवर्क आए तो बताना।”

उद्योग की बात मत ही पूछिए, सपना टूट जाएगा

हर बार कहा जाता है – बिहार में अब कारखाने खुलेंगे, युवाओं को यहीं नौकरी मिलेगी। लेकिन असल में उद्योग आता ही नहीं। युवक को नौकरी छोड़ो, गांव में अगर WiFi पकड़ ले, तो वो खुद को भाग्यशाली मानता है।

बिहार का युवा दो ही रास्ते जानता है – बाहर जाके मज़दूरी करना और प्रतियोगी परीक्षा की कोचिंग में लग जाना

बिहार का बेरोजगार लड़का शादी में लड़की से कहता है –

“मैं तैयारी कर रहा हूं।”
लड़की बोले – “कब से?”

लड़का – “नीतीश जी जब पहली बार मुख्यमंत्री बने थे, तब से!”

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फाइल फोटो: मुख्यमंत्री नितीश कुमार

अस्पताल की हालत – दवा नहीं, दुआ चाहिए

सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर नहीं, दवा नहीं, मशीनें हैं लेकिन चालू नहीं। कोरोना काल में ये बात सबके सामने आ चुकी है।
अब गांव के लोग डॉक्टर की जगह ओझा-गुणी के पास जाना ज़्यादा सही समझते हैं। क्योंकि सरकारी डॉक्टर कभी मिलता ही नहीं।

नेता लोग आते हैं, जुमलों की बोरी लेकर

“बिहार को बदल डालूंगा!”,
“हर जिले में एयरपोर्ट बनेगा!”,
“हर हाथ को रोजगार मिलेगा!”

और जब जनता पूछती है – “भैया, कुछ हुआ क्या?” तो नेता मुस्कराते हुए कहते हैं –
“देखिए, हम तो नीयत से काम कर रहे हैं, बाकी पिछली सरकार ने क्या किया था?”

तो फिर कौन ज़िम्मेदार है इस हालात का?

अब ये एक करोड़ डॉलर वाला सवाल है – बिहार की बदहाली का जिम्मेदार कौन?
कुछ कहेंगे – लालू जी की सरकार ने सब चौपट किया।

कुछ कहेंगे – नीतीश जी ने मौका गंवा दिया।
कुछ कहेंगे – मोदी जी ने सिर्फ वादा किया, निभाया नहीं।

लेकिन असली बात ये है – हर कोई सत्ता में आकर बिहार को “प्रॉमिसलैंड” बना देता है, और जाते-जाते बिहार को “प्रॉब्लम-लैंड” छोड़ जाता है।

जनता बोले – अब हम क्या करें?

बिहार का युवा अब मज़ाक में कहता है –
“हम तो वोट इस उम्मीद में देते हैं कि अगली बार थोड़ा ज़्यादा धोखा मिलेगा।”

कहीं सड़क नहीं बनी, कहीं पुल टूटा पड़ा है, कहीं अस्पताल में इलाज नहीं, कहीं पढ़ाई नहीं, और सबसे बड़ी बात – भविष्य नहीं दिखता।

आखिरी बात – अब बिहार को केवल वादे नहीं, विकास चाहिए

अब सूबे को नेताओं के भाषण नहीं, एक्शन चाहिए। हर साल बजट में जो पैसे आते हैं, उसका हिसाब चाहिए। हर योजना का रिव्यू, हर जिले का ऑडिट और जनता को जवाबदेही चाहिए।

“अब नारियल मत फोड़िए, ईंट रखिए और काम पूरा कीजिए!”

क्योंकि अब बिहार को सिंगापुर बनाने के वादों की नहीं, सीतामढ़ी से सुपौल तक सच्ची तरक्की की जरूरत है।

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#बिहार_को_जवाब_चाहिए #घोषणा_नहीं_परिणाम_चाहिए

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